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________________ जैन सिद्धान्त : ४८९ कहलाते है । सम्मुख आना, मुड़कर जाना, शरीर संकोच करना, फैलाना, शब्द करना, भय से इधर-उधर घूमना, भाग जाना, आने-जाने का ज्ञान होना-ये सब त्रस जीवों के लक्षण हैं।' द्वीन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव त्रस कहलाते हैं क्योंकि इन समस्त जीवों में हलन-चलन आदि क्रियायें पायी जाती हैं। त्रस जीवों के उत्पत्ति-स्थान-त्रस जीवों के मुख्यतया आठ उत्पत्ति-स्थान है-(१) अण्डज-अण्डों से पैदा होने वाले पक्षी आदि त्रसजीव । (२) पोतजजन्म के समय खुले अंगों सहित उत्पन्न होने वाले हाथी आदि त्रसजीव । (३) जरायुज-वे त्रसजीव जो अपने जन्म के समय जरा से लिपटे रहते हैं-जैसे मनुष्य, भैंस, गाय आदि । (४) रसज-रस के बिगड़ने से उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीव (५) स्वैवज-पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव, जैसे जूं, चीलर आदि । (६) सम्मूछिम-वे त्रस जीव जो नर-मादा के संयोग के बिना ही उत्पन्न हो जाएँ, जैसे मक्खी, चींटी आदि (७) उद्भिज-पृथ्वी को फोड़कर निकलने वाली जीव, जैसे टिड्डो, पतंगे आदि (८) औपपातिक-गर्भ में रहे बिना ही जो स्थान विशेष में उत्पन्न हो जाते हों जैसे देव एवं नारक जीव । त्रस जीवों के भेद : त्रस जीव के दो भेद है-विकलेन्द्रिय और सकले. न्द्रिय । दो, तीन और चार इन्द्रियों वाले जीव विकलेन्द्रिय कहलाते हैं । जैसेदीन्द्रिय जीवों में शंख, सीप, कृमि आदि, तीन इन्द्रियों वाले जीवों में गोपालिका अर्थात् बिच्छ, खटमल आदि तथा चार इन्द्रिय वाले जीवों में भ्रमर, मक्खी , पतंग आदि जीव हैं । जलचर, थलचर, खेचर (नभचर) एवं देव, नारकी, मनुष्य-ये जीव पांचों इन्द्रियों वाले होने से सालेन्द्रिय कहलाते हैं । नयचक्र के अनुसार त्रस जीव के चार भेद है-दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रिय वाले जीव । कृमि, शंख आदि दो इन्द्रिय जीवों में स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रियाँ तथा वचन, काय, श्वासोच्छवास और आयु-ये पांच प्राण होते हैं । तीन इन्द्रिय जीवों को उपयुक्त दो इन्द्रियों के अतिरिक्त तीसरी घ्राण इन्द्रिय और अधिक होती है। भ्रमर, पतंगा आदि चार इन्द्रिय जीवों में चौथी चक्षु इन्द्रिय और होती है। पानी में रहने वाले जीवों में कुछ जाति के १. जीव-अजीव पृष्ठ ९. २. वही पृष्ठ १.१३. ३. दुविधा तसा य उत्ता विगला सगलेन्दिया मुणेयव्वा । बितिचउरिदिय विगला सेसा सगलिदिया जीवा ॥ मूलाचार ५।२१. ४. चदु तसा तह य--नयचक्र १२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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