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४८८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
हमारी ही तरह सचेत हो उठते हैं । उन्होंने पौधों पर मदिरा (शराब) का प्रयोग भी किया और उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वे भी मदिरा के प्रभाव से. अन्य प्राणियों की तरह मदहोश (नशायुक्त) हो उठते हैं। उन्होंने यन्त्र के माध्यम से यह भी देखा कि पातगोपी और गाजर को चाकू आदि से काटने पर वे काँप उठते हैं । लोग यह जानकर आश्चर्यचकित रह गये कि वनस्पति आदि जिन पदार्थों को लोग प्रायः निर्जीव (निष्प्राण) एवं संज्ञाहीन मानते थे, उन पर भी मदिरा, विष, चोट, आघात की वही प्रतिक्रिया होती है जो मनुष्य या पशु आदि को मांसपेशियों पर होती है । पौधों में भी हमारी तरह जीवत्व गुण होता है, जिसकी मदद से वे अपने आपको और अपने परिवेश को जानते-समझते हैं। वस्तुतः इन प्रयोगों के माध्यम से वनस्पति में चेतना (जीवत्व) सम्बन्धी इस वैज्ञानिक खोज का प्रथम श्रेय प्रो० बसु को प्राप्त है । इसी तरह शब्द को पोद्गलिकता आदि अनेक जैन सिद्धान्त जैसे-जैसे विज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध होते जा रहे हैं, लोगों का विश्वास और लगाव जैनधर्म के प्रति गहरा होता जा रहा है। इसीलिए जैनधर्म के गहन अध्ययन-अनुसंधान की आज के सन्दर्भ में अधिक आवश्यकता भी है। उस जीव: _ संसारी जीव के दो भेद हैं-स्थावर और त्रस । पृथ्वीकायिक आदि पाँच एकेन्दिय स्थावर जीवों का विवेचन किया जा चुका है। यहाँ त्रस जीवों का विवेचन प्रस्तुत है
त्रस जीव का स्वरूप-सामान्यतः स्वतः गमन-स्वभाव वाले जीवों को त्रस कहते हैं । जिनके त्रसनामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं। त्रस जोव स्थावर को अपेक्षा इसलिए श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि इनमें सब उपयोगों का पाया जाना सम्भव है।' धवला में कहा है-जिस कर्म के उदय से जीवों में गमनागमन स्वभाव (चलने-फिरने का परिणाम) होता है यह त्रस नामकर्म है । इस दृष्टि से अस नामकर्म के उदय से जीव को प्राप्त होने वाली जीव-पर्याय को स कहते हैं । इस प्रकार जो जोव सुख-दुख प्रकट करते हैं, जिनमें सुख की प्रवृत्ति वा दुःख की निवृत्ति के लिए चलने-फिरने की शक्ति होती है वे जीव त्रस
१. सर्वार्थसिद्धि २।१२।१७१. २. जस्स कम्मुस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणार्म
-धवला १३१५, ५, १०१।३६५। ३.
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