________________
जैन सिद्धान्तः ४८७ कायिक वनस्पति हैं तथा जल, पृथ्वी, हवा, अग्नि आदि भी बावरकायिक हैं । - सूक्ष्मकाय जीव सर्वत्र जल, आकाश और स्थल में रहते हैं । '
पृथ्वी आदि से लेकर वनस्पति पर्यन्त बादर (स्थूल) काय और सूक्ष्मकाय ये -दोनों होते हैं । बादरकाय जीव आठ पृथ्वियों तथा विमानादि के सहारे रहते हैं । साथ ही सूक्ष्मकाय जो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर वाले होते हैं वे जल, आकाश और पृथ्वी सर्वत्र बिना आश्रय के रहते हैं । अर्थात् वे सूक्ष्मजीव सम्पूर्ण जगत् में निरन्तर रहते हैं । जगत् का एक भी प्रदेश इनसे रहित नहीं है किन्तु बादर जीव लोक के एक भाग में रहते हैं ।
वनस्पति काय सम्बन्धी जैन मान्यतायें और आधुनिक विज्ञान :
जैनधर्म ने अपने जिन शाश्वत सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रारम्भ से किया, हजारों-हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी आज वे चिर-नवीन हैं तथा आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर पूर्णतः सत्य सिद्ध होते है । 'वनस्पति' सम्बन्धी -मान्यता को ही लें । वनस्पति में 'जीव' सम्बन्धी जैन मान्यता को कुछ जैनेतर · स्वीकार नहीं करते थे, किन्तु विज्ञान से उसे पूर्णता सत्य सिद्ध करने का श्रेय लगभग पाँच दशक पूर्व भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर जगदीश चन्द्र बसु को प्राप्त हुआ । इस विषय में अनेक वर्षों के गहन अनुसन्धान के बाद उन्होंने प्रयोगों द्वारा पौधों में जीवन के लक्षण सिद्ध किये और यह निष्कर्ष निकाला कि पौधे भी संवेदनशील होते हैं तथा बाहरी उत्तेजना ( बाधा ) की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं । प्रोफेसर -वसु ने वनस्पति पर जीवन को साक्षात् देखने, मापने के लिए 'क्रेस्कोग्राफ' नामक एक अत्यन्त संवेदनशील यंत्र बनाया । इसकी सहायता से पौधों की अनुक्रियाओं (रेस्पांसेज) के ग्राफ तैयार किये जाते हैं और यह जाना जाता है कि पौधों को - आघात ( कष्ट आदि) पहुँचाने पर वे क्या अनुभव करते हैं ? उन्होंने पौधों पर अनेक तरह के प्रयोग किये और ज्ञात किया कि जिस तरह मनुष्य, पशु आदि थकान अनुभव करते हैं, और इन पर थकान के जो लक्षण दिखते हैं उसी तरह के लक्षण पौधों में भी पाये जा रहे हैं ।
एक प्रयोग के दौरान उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि पौधों को क्लोरोफार्म के द्वारा बेहोश किया जा सकता है। उसके प्रभाव समाप्त होने के बाद वे भी
१. सेवाल पणग केण्णग कवगो कुहणोय बादरा काया ।
सव्वेवि सुहुमकाया सव्वत्थ जलत्थलागासे || मूलाचार ५।१८. २. मूलाचार वृत्ति ५।१८. ३. वही १२।१६१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org