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जेन सिद्धान्त : :
अर्थात् अनन्त जीवों के सम्मिलित शरीर को अनन्तकाय या साधारणशरीर कहते है।' क्योंकि उस शरीर में अनन्त जीकों का जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास आदि साधारण (समान) रूप से होता है अर्थात् एक साधारण शरीर में अनन्त जीवों का अवस्थान होता है । जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है, वहाँ अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है तथा जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवों का मरण होता है। धवला के अनुसार बहुत जीवों का जो एक शरीर है वह साधारण शरीर कहलाता है । उनमें जो जीव निवास करते हैं वे साधारण शरीर जीव कहलाते हैं । इन साधारण जीवों का आहार साधारण (समान) हो होता है और समान ही श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं। अर्थात एक साथ उत्पन्न अनन्तानंत जिन जीवों की आहारादि पर्याप्ति तथा उनके कार्य समान काल में होते हों उन्हें साधारण जीवों का लक्षण साधारण कहा है। साधारण को ही निगोद और अनन्तकाय भी कहते हैं।
मूलाचारकार के अनुसार गूढ़सिरा अर्थात् जिनकी शिरा (नसे), संधि (बन्धन) तथा गाँठ नहीं दिखती, जिसे तोड़ने पर समान टुकड़े हो जाते हैं, दोनों भागों में परस्पर तन्तु न लगा रहे तथा जिनका छेदन करने पर भी पुनः वृद्धि (अंकुरित) को प्राप्त हो जाय, उसे साधारण शरीर तथा इन सब लक्षणों के विपरीत को प्रत्येक शरीर कहते है।" लाटी संहिता के अनुसार भी जिसके तोड़ने में दोनों भाग चिकने और एक से हो जायें, वह साधारण वनस्पति है । जब तक उसके टुकड़े इसी प्रकार होते रहते हैं तब तक उसे साधारण वनस्पति समझना चाहिए । जिसके टुकड़े चिकने और एक से न हों उन्हें प्रत्येक वनस्पति कहा जाता है।
प्रत्येक वनस्पति के दो भेदः-- गोम्मटसार में प्रत्येक वनस्पति के दो भेद बतलाये है-१. सप्रतिष्ठित, २. अप्रतिष्ठित । जिन वनस्पतियों का बीज,
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१. अनन्तः साधारणः कायो येषां ते अनन्तकायः-मूला• वृत्ति ५।१६. २. जत्येउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणंभवे अणंताणं माकमइजस्थ एक्को वक्कमणं तत्थणताणं ॥ कुन्द० मूला० ५।२३,
षट्खण्डागम पुस्तक १४, सूत्र १२५. ३. बहूणं जीवाणं जमेगं सरीरं तं साहारणसरीरं णाम । तत्थ जे तंति जीव
ते साहारण सरीरा-धवला. १४।५।६; ११९, पृ० २२५. ४. कुन्द० मूलाचार ५।१४ ५. मूलाचार ५।१९-२०. ६. लाटीसंहिता २।१०९.
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