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________________ ४७८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन - इस प्रकार नौ पदार्थ मोक्ष के कारणभूत है। इन्हीं का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और इन्हीं पदार्थों का यथार्थ अधिगम या अनुभव सम्यग्ज्ञान है तथा भेद विज्ञानी जीव का राग-द्वेष रहित शान्त स्वभाव सम्यक चारित्र है। तस्वार्धसूत्र में जो तत्त्व बतलाये हैं उनमें और मूलाचार के तत्त्व-क्रम में अन्तर है । तत्त्वार्थसूत्रकार की दृष्टि में पुण्य और पाप का अन्तर्भाव आस्रव एवं बन्ध तत्त्वों में हो जाता है। अतः उन्होंने नौ तत्त्व न कहकर सात तत्त्व ही कहे हैं जबकि वट्टकेर तथा कुन्दकुन्द ने इनके नौ भेद बतलाये हैं । इनका क्रमशः विवेचन प्रस्तुत है१. जीव स्वरूप विमर्श चेतना जीव (Soul) का लक्षण है। ज्ञान-दर्शन युक्त होकर इनके द्वारा सुख-दुःखों का अनुभव करने वाले जीव कहलाता है।' प्रवचनसार के अनुसार इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास-इन चार प्राणों से अथवा पाँच इन्द्रिय-- प्राण, मनोबल, वचनबल और कायबल (तीन बलप्राण) तथा आयु और श्वासोच्छ्वास--इन दस प्राणों से जो जीता है, जियेगा तथा पहले जीवित था वह जीव है । द्रव्य संग्रह में कहा है, जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता-- भोक्ता, स्वदेश परिमाण वाला और संसारस्थ है, सिद्ध होने की शक्ति रखता है तथा स्वभाव से उर्ध्वगति को जाने वाला है वह जीव है। ___ इस तरह जैनदृष्टि से जीव ज्ञान-चैतन्य स्वरूप तथा सदा प्रकाशयुक्त है इन्हीं विशेषताओं के आधार पर वह समस्त जड़ द्रव्यों से पृथक् माना जाता है । ज्ञान जीव का एक विशिष्ट गुण अथवा शक्ति है, जिसके कारण जीव में जानने की प्रवृत्ति होती है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों एवं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में जीव सर्व प्रधान है। क्योंकि वही स्वपरावभासी है। ज्ञान और दर्शन रूप चेतना जीव का लक्षण है। विशेष रूप से पदार्थ को जानना ज्ञान चेतना है और निर्विकल्प-सामान्य रूप से पदार्थ को जानना दर्शन चेतना है । इन्हीं दोप्रकार की चेतना से सम्बन्ध रखने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते हैं। १. जीवश्चेतनलक्षणा ज्ञानदर्शनसुखदुःखानुभवनशीला :-मूलाचार वृत्ति ५।६. २. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । सो जीवो-प्रवचन सार १४७. ३. जीवो उवयोगमओ अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ द्रव्य संग्रह २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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