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________________ जैन सिद्धान्त : ४७९. ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग के भेद से उपयोग के दो भेद हैं। उपयुक्त लक्षणों के अनुसार जीव ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला होने से वह 'आत्मा' ही है किन्तु संसारावस्था में प्राण धारण करने के कारण 'जीव' संज्ञा युक्त है। इसी अवस्था में शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक् लौकिक विषयों को कर्ता व भोगता हुआ भी वह केवल ज्ञाता है। ____ जीव (आत्मा) अमूर्तिक है । स्व-शरीर में स्थित जीव का बोध स्वसंवेदन ज्ञान से होता है । 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैंने यह कार्य किया और यह करना है'-इत्यादि रूप जो 'मैं' का अनुभव होता है वही जीव है तथा परकीय शरीर में उसकी चेष्टाओं के द्वारा जीव का अस्तित्व अनुभव में आता है । यद्यपि जीव तत्त्व आत्मा का बोधक है फिर भी जीव और आत्मा में कुछ दृष्टियों से अन्तर माना जाता है। जीव से जीवन का बोध होता है और मरण जीवन सापेक्ष है किन्तु जिसमें जीवन और मरण दोनों नहीं हैं वह आत्मा है। इसीलिए व्यवहार दृष्टि से चार प्राणों से जीवन की अपेक्षा और निश्चय दृष्टि से चैतन्य प्राणों की अपेक्षा जो जीता है वह आत्मा है।' जीव के भेद-जीव के दो भेद हैं : संसारी और मुक्त ।२ कर्मबन्धन से बद्ध यह जीव अनादि काल से कर्म और नोकर्म के संसर्ग में पड़कर दुःखी ही रहा है। इन्हीं कर्मों के संसर्ग से आत्मा में रागादि भावकर्म उत्पन्न होते हैं जो कि नवीन कर्मों के कारण हैं । कर्म बन्धन से बद्ध एक गति से दूसरी गति में जन्म और मरण करने वाले अर्थात् चतुर्गति में भ्रमण करने वाले जीव संसारी कहलाते हैं तथा कर्मक्षय के द्वारा शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त जीव मुक्त कहलाते हैं । वस्तुतः मुक्तावस्था में जीव अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होता है। मुक्त जीवों में एकरूपता और पूर्ण शुद्धता होने से इनमें किसी प्रकार का स्तर अथवा भेद नहीं होता किन्तु संसारी जीवों में अनेक प्रकार के भेद पाये जाते हैं । संसारी जीव के पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति तथा त्रस-ये छह भेद हैं । १. आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार पृ० २६३. २. दुविहा य होंति जीवा संसारत्था य णिव्वुदा चेव-मूलाचार ५।७, त० सू०, २।१०. ३. मूलाचार वृत्ति ५।७. ४. छद्धा संसारत्था सिद्धगदा णिव्वुदा जीवा-मूलाचार ५।७. पुढवी आऊ तेऊ वाऊ य वणप्फदी तहा य तसा-वही, ५।८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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