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________________ जैन सिद्धान्त : ४७७ आस्रव, बंघ, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वरूप अर्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।' इन सात तत्त्वों में पुण्य और पाप मिला देने से नवपदार्थ या तत्त्व हो जाते हैं । आचार्य पूज्यपाद के अनुसार- 'तत्त्व' शब्द भाव सामान्य का वाचक है । अतः जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना 'तत्त्व' शब्द का अर्थ है । आचार्य वट्टर और आचार्य कुन्दकुन्द ने सत्यार्थ रूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - इन नव पदार्थों को सम्यक्त्व कहा है । यहाँ भूतार्थ का अर्थ है भूत - सत्य, अर्थ-स्वरूप । जो पदार्थ जिस रूप से व्यवस्थित हैं वे अपने-अपने स्वरूप से ही जाने गये हैं, अतः ये नव पदार्थं सम्यक्त्व हैं । । वस्तुतः जीव और अजीव - ये दो तत्त्व मुख्य हैं संयोग-वियोग से बने हैं । मोक्षका अधिकारी जीव है अन्य तत्त्व इन दोनों के अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व अशुद्ध अवस्था के होने में । इन दोनों तत्त्वों की पर्याय हैं और द्रव्य रूप इसके बाद जीव की तत्त्व का प्रतिपादन है भावरूप में जीव की परिणत हुआ का प्रतिपादन किया गया है । पुद्गल निमित्त है अतः अजीव मुख्यता की दृष्टि से बाकी तत्त्व में पुद्गल की । शुभ प्रकृति स्वरूप पुद्गल पिण्ड पुण्य कहलाता है जो कि जीवों में आह्लाद रूप सुख का निमित्त है और अशुभकर्म स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पाप रूप है जो कि जीव के दुःख का हेतु है ।" जीव और अजीव का संयोग आस्रवपूर्वक होता है इसलिए आस्रव और बन्ध तत्त्व कहे गये । वस्तुतः पुण्य-पाप और बन्ध - ये पौद्गलिक भाव आत्मा की शुभ-अशुभ परिणति भी है और आकर्षण भी है । जीव को अपनी अशुद्ध दशा और छुटकारा पाना है तो वह संवर और निर्जरा पूर्वक ही मैं जिसके द्वारा जीव मुक्त हो जाये वह मोक्ष है । जीव साधक है । १. तत्त्वार्थ सूत्र १।४. २. सर्वार्थसिद्धि १।२।१३ पृ० ६-७ . ३. भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसव संवर णिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ ४. मूलाचार वृत्ति ५। ६. ५. मूलाचार वृत्ति ५।६. Jain Education International ( अजीव ) की पर्याय हैं । शुभ-अशुभ कर्म पुद्गलों का पुद्गल की निमित्तता से प्राप्त हो सकता है । अन्त मोक्ष ही मुख्य साध्य है और —मूलाचार ५।६; समयसार १३, पंचास्तिकाय १०८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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