SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ― - अस्तित्व का अर्थ है जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता । २ - जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य में अर्थक्रिया (कुछ न कुछ कार्य करता रहना) हो वह वस्तुत्त्व गुण है । ३- जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय रूप परिवर्तित हो उसे द्रव्यत्व कहते हैं । ५अगुरुलघुत्व -- जिस शक्ति के रहते द्रव्य की एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप नहीं होती या एक-दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता अथवा एक द्रव्य के गुण बिखरकर अलगअलग न होने देने वाला अगुरुलघुत्व गुण है । ६ - जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कोई न कोई आकार हो वह प्रदेशत्व गुण है । " इनके अतिरिक्त द्रव्यों में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गंध, वर्णं, 'गतिहेतुत्त्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्त्व, वर्तना-हेतुत्त्व, चेतनत्त्व, अचेतनत्त्व, मूर्तत्त्व और अमूर्तत्व-ये सोलह विशेष गुण भी होते हैं किन्तु वे सब द्रव्यों में समान रूप में नहीं रहते अतः ये विशिष्ट गुण कहलाते हैं । छह द्रव्यों में ये इस प्रकार होते हैं ? १. जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्त्व - ये छह गुण होते हैं । २. पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, अचेतनत्व और मूर्तत्त्व ये छह गुण होते हैं । ३. धर्म द्रव्य में गतिहेतुत्त्व, अचेतनत्त्व और अमूर्तत्त्व - ये तीन गुण हैं । ४. अधर्मं द्रव्य में स्थितिहेतुत्व, अचेतनत्त्व और अमूर्तस्व — ये तीन गुण हैं | ५. आकाश द्रव्य में अवगाहनत्त्व, अचेतनत्त्व और अमूर्तत्त्व - ये तीन गुण हैं । ६. काल द्रव्य में वर्तना-हेतुत्त्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्त्व ये तीन गुण हैं। नव पदार्थ : जैन-धर्म-दर्शन विषयक साहित्य में नव पदार्थ और सात तत्त्वों का विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन प्रायः सर्वत्र किया गया है । सम्यग्दर्शन -ज्ञान और चारित्र स्वरूप रत्नत्रय के विवेचन में सम्यग्दर्शन की महत्ता स्वयमेव सिद्ध है और इसकी परिभाषा 'तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' की गई है अर्थात् जीव, अजीव, ३ १- २. संयम प्रकाश : उत्तरार्द्ध प्रथमकिरण पृष्ठ ४४-४५. ३. तत्त्वार्थ सूत्र १ । २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy