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जैन सिद्धान्त : ४७५ . ४. अधर्मद्रव्य-जैसे धर्मद्रव्य गति में सहायक है उसके विपरीत अधर्मद्रव्य स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों को स्थिर रखने (ठहरने) में सहायक है। अधर्म द्रव्य भी धर्मद्रव्य की तरह असंख्यात् प्रदेशी, सकल लोकव्यापी, त्रिकाल स्थायी, अरूपी और अचेतन है । ____ वस्तुतः जीव, पुद्गलादि द्रव्य अपनी ही प्रेरणा से गमन (गति), स्थिति आदि क्रियायें करते हैं और ऐसा करते हुए धर्म, अधर्म द्रव्य की सहायता लेते हैं।
५. आकाशद्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल-इन द्रव्यों को रहने या आश्रय के लिए स्थान (अवकाश या अवगाह) देना आकाश द्रव्य का स्वभाव है । वस्तुतः आकाश जीवादि सभी द्रव्यों के रहने का स्थान है। लोक, अलोक दोनों में व्याप्त आकाश, अनन्तप्रदेशी अविभाज्य पिण्ड, त्रिकाल स्थायी अरूपी द्रव्य है।
६. कालद्रव्य-यह धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल द्रव्यों के वर्तनापर्याय परिणति में निमित्त कारण है। दूसरे शब्दों में इसमें परिवर्तन अर्थात् पर्याय अवस्था की उत्पत्ति में सहायक होने का गुण है। कालद्रव्य प्रति समय होनेवाली पर्याय का कारण है इसलिए उसे अणुरूप माना गया है । लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक-एक कालाणु स्थित है, इसी कारण असंख्यात प्रदेशों के धारक लोकाकाश में असंख्यात ही काल द्रव्य हैं और प्रत्येक कालद्रव्य एक-एक प्रदेश का धारक है; इस कारण अविभागी पुद्गल परमाणु के समान इसे भी अप्रदेशी माना जाता है । इस तरह काल के कायत्व न होने से छह द्रयों में काल को छोड़ शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं ।४ कालद्रव्य परमाणु की तरह एक प्रदेशी है अतः वह अस्तिकाय (कायावान्) नहीं है। क्योंकि अनागत काल की उत्पत्ति नहीं हुई तथा उत्पन्न काल का विनाश हो जाता है और प्रदेशों का प्रचय होता नहीं अतः काल अस्तिकाय नहीं है। द्रव्य के गुण
जैन दर्शन के अनुसार अस्तित्त्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व प्रमेयत्त्व, अगुरुलघुत्त्व और प्रदेशत्त्व-ये साधारण गुण छह द्रव्यों में समान रूप से रहते हैं। १. पंचास्तिकाय-११८६, ८८-८९ । २. गतिठाणोग्गाहणकारणाणि कमसो दु वत्तणगुणो य-मूलाचार ५।३६. ३. मूलाचार वृत्ति ५।३५. ४, कालस्स दु णस्थि काय....पंचास्तिकाय ११०२. ५. कालस्सेगो ण तेण सो काओ-द्रव्यसंग्रह २५.
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