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• जैन सिद्धान्त : ४७३
। १. शब्द-एक पुद्गल स्कन्ध के साथ दूसरे स्कन्ध के टकराने, सम्बन्ध होने या कम्पन होने पर जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह शब्द है। जैनदर्शन में शब्द को पौद्गलिक माना गया गया है। जैनदर्शन की यह मान्यता इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान की कसौटी पर पूर्णतः खरी उतरती है। टेपरिकार्डर, रेडियो, दूरदर्शन, वायरलेस, वीडियो, दूरभाष आदि अनेकों इसके प्रमाण हैं। शब्द श्रोत्रेन्द्रिय (कर्णेन्द्रिय) का विषय है। शब्द गुण नहीं अपितु पुद्गल द्रव्य की ही एक पर्याय है जबकि नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिक इसे. आकाश का गुण मानते हैं। पुद्गल द्रव्य के स्पर्श, रस आदि जो लक्षण होते हैं वे सब शब्द में पाये जाते हैं । शब्द पुद्गल द्वारा रुकता है, पुद्गलों को रोकता है, शब्द ग्रहण एवं धारण किया जाता है । वस्तुतः पुद्गल के अणु और स्कन्ध भेदों की अनेक जातियों में से एक भाषा वर्गणा इस लोक में सर्वत्र व्याप्त है, उसी की तरंगों के कम्पन से शब्द एक स्थान से दूसरे स्थान पर रेडियो आदि या साक्षात् रूप में सुनाई पड़ता है । वैज्ञानिक अब तो ऐसा यन्त्र बनाने की सोच रहे हैं जो सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले लोक में व्याप्त शब्दों, ध्वनियों, भाषा वर्गणाओं को ग्रहण कर सके।
शब्द के दो भेद हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक-ये दो भेद हैं। बोल-चाल में आनेवाली अनेक प्रकार की जो भाषायें हैं जिनमें ग्रंथ भी लिखे जाते हैं वे सब अक्षरात्मक शब्द हैं तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों द्वारा जो ध्वनि निकलती हैं वे अनक्षरात्मक शब्द हैं । अभाषात्मक के भी दो भेद हैं । १. वैस्रसिक (मेघ आदि गर्जना रूप) शब्द और २. प्रायोगिक । प्रायोगिक शब्द के चार भेद है-१. तत शब्द अर्थात् चमड़े से मढ़े हुए ढोल, मृदंग आदि का शब्द, २. वितत शब्द-अर्थात् वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द, ३. धन शब्द-अर्थात् झालर, घण्टा आदि का शब्द एवं ४. सौषिर शब्द अर्थात् शंख, बाँसुरी आदि का शब्द ।'
२. बन्ध-बन्ध का अर्थ है जुड़ना, बंधना, संयुक्त होना या एकत्व परिणाम। यह भी पौद्गलिक है। इसके दो भेद हैं--वैससिक और प्रायोगिक । जिसमें पुरुष का प्रयोग अपेक्षित नहीं है, जैसे स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से होनेवाला इन्द्र धनुष, उल्का, बिजली, मेघ, अग्नि आदि सम्बन्धी वैनसिक बन्ध है तथा जो बन्ध पुरुष के निमित्त से होता है वह प्रायोगिक बन्ध है। जैसे लाख और लकड़ी का अजीव विषयक बन्ध और कर्म तथा नोकर्म का जो जीव से बन्ध होता है वह जीवाजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है ।२ . १. सर्वार्थसिद्धि ५।२४।५७२. २. वही, ५।२४।५७२ पृ० २२५.
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