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जैन सिद्धान्त : ४७१
१. जीव द्रव्य-जीव द्रव्य चैतन्यवान् है, जानना एवं देखना उसका स्वभाव है। तस्वार्थसूत्र में उपयोग को जीव का लक्षण कहा है।' यह उपयोग (ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव) जीव का आत्मभूत लक्षण है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता। उपयोग का कारण चेतना शक्ति है । यद्यपि जीव (आत्मा) द्रव्य अनन्त गुण पर्यायों का पिण्ड है किन्तु इन सबमें उपयोग मुख्य है । जीव के चैतन्यानुविधायी परिणाम को उपयोग कहते हैं अर्थात् वस्तु का स्वरूप जानने के लिए जीव का जो भाव प्रवृत्त होता है, वह उपयोग कहलाता है । यही जीव का लक्षण है। जीव द्रव्य का विशेष विवेचन नव पदार्थ शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है।
अजीव द्रव्य-जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव द्रव्य है। दूसरे शब्दों में जिसमें चेतना गुण का अभाव है, जिसे सुख-दुःख का ज्ञान , नहीं है, हित की इच्छा और अहित से भय नहीं है, वह जड़ स्वभाव वाला अजीव द्रव्य है । अजीव द्रव्य के भेद ____ अजीव द्रव्य के दो प्रकार है-रूपी और अरूपी। अजीव द्रव्य के पाँच भेद भी माने जाते हैं-१. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश और ५. काल । इन पाँच द्रव्यों में जीव द्रव्य सम्मिलित कर लेने पर छह द्रव्य कहलाते हैं। इनमें काल द्रव्य अप्रदेशी होने के कारण इसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य (कायवान् होने से) 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। तथा इन छह द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य रूपी है शेष पाँच द्रव्य अरूपी हैं ।
रूपी-जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-ये गुण पाये जायें वह रूपी द्रव्य है। रूपी द्रव्य के चार भेद है--स्कन्व, स्कन्ध देश, स्कन्धप्रदेश और अण ।५ १. जिसके खण्ड न हों जो सर्वथा अविभाज्य हो वह स्कन्ध कहलाता है । पुद्गल के जितने भेद (परमाणु तक) होते हैं वे सब स्कन्ध है अर्थात् अपने अवयवों के. साथ (अनेक भेदयुक्त) सामान्य-विशेषात्मक पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध कहते हैं। २. स्कन्ध के कल्पित भाग अर्थात् स्कन्ध के आधे विभाग को स्कन्ध देश कहते हैं।
१. उपयोगो लक्षणम्-तत्त्वार्थ सूत्र २।८. २. एवं विधभावरहियमजीवदन्धेत्ति विण्णेयं-मूलाचार ५१३२. ३. पंचास्तिकाय २११२४-१२५. ४. मूलाचार ५।३३. ५. अज्जीवा वि य दुविहा रूपारवा य रूविणो चदुधा । - बंधा या खंधदेसो खंदपदेमो अणू य सहा ॥ मूलाचार ५१३३.
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