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. ४७० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को 'पर्याय' कहते हैं। जैसे स्वर्ण और चांदी-इन दोनों की अलग-अलग पहचान जिन गुणों से होती है वे उस द्रव्य के गुण हैं । पीलापन (पीतत्व), भारीपना और कोमलपना आदि स्वर्ण के तथा श्वेतत्व, हलकापना और कठोरपना आदि चाँदी के गुण हैं । ये द्रव्य से कभी पृथक् नहीं हो सकते । इसी सोने या चाँदी के कुण्डल, भुजबंध, कंगन या अंगूठी आदि रूप जो आभूषण बनवाते रहते हैं. यही उस द्रव्य की पर्यायें हैं । अतः परिवर्तन मात्र आकृतियों (पर्यायों) में हुआ करता है तथा स्वर्णत्व या रूपकत्व रूप में सोना या चाँदो दोनों अवस्थाओं में सुरक्षित रहता है । इस तरह गुण सहभावी होने से उसके स्वरूप को रक्षा करता हुआ द्रव्य में ध्रौव्य (नित्य) रहता है किन्तु पर्यायें क्रमभावी होने से पूर्व पर्याय का विनाश और दूसरी पर्याय की उत्पत्ति होती है अतः पर्याय को क्रमभावो कहा गया है । इसी विषय को आचार्य समन्तभद्र ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है
· घटमौलिसुवर्णार्थो नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥२ अर्थात् घट का इच्छुक उसका नाश होने पर दुःखी होता है, मुकुट का इच्छुक उसका उत्पाद होने पर हर्षित होता है किन्तु स्वर्ण का इच्छुक न दुःखी होता है, न हर्षित होता है अपितु वह मध्यस्थ रहता है । अत: एक ही समय में यह शोक, प्रमोद और माध्यस्थ भाव बिना कारण के नहीं हो सकता, इससे प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सिद्ध होता है । ___इस तरह स्वर्ण आदि द्रव्य का भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिणमन होने पर भी उनका द्रव्यत्व बना ही रहता है। जैनदर्शन में प्रत्येक द्रव्य को नित्यअनित्य दोनों रूप माना गया है अर्थात् अलग-अलग अवस्थाओं (पर्यायों) को प्राप्त करते रहने पर भी अपना स्वरूप न छोड़ने के कारण द्रव्य नित्य भी है और वही द्रव्य अलग-अलग पर्यायों को प्राप्त करता रहता है अतः अनित्य भी है।
द्रव्य के भेद-मूलतः द्रव्य के दो भेद है-जीव और अजीव । ३
१. गुण इदि दव्वविहाणं दब्वविकारो हि पज्जवो भणिदो ।
तेहिं अणूणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे णिच्वं । सर्वार्थ सिद्धि ५३८१६००. २. आप्तमीमांसा : कारिका ६०. ३. जीवमजीवं दव्वं जिणवस्वसहेजनेण पिद्दिढें-द्रव्यसंग्रह १.
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