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जैन सिद्धान्त : ४६९. पर्यायों को प्राप्त होते हैं। वे द्रव्य कहलाते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिसका लक्षण सत् है वह द्रव्य है। जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वह द्रव्य है तथा जो गुण और पर्याय का आश्रय है वह द्रव्य है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी द्रव्य की यही परिभाषायें की गई हैं।
वस्तुतः सभी पदार्थ 'सत्' (अस्तित्व) रूप हैं । उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्यइन तीनों से युक्त 'सत्' कहलाता है । अपनी जाति का त्याग किये बिना जिस वस्तु में उत्पाद (नवीन पर्याय की उत्पत्ति), व्यय (पूर्व पर्याय का त्याग या नाश) तथा ध्रौव्य अर्थात् पूर्व एवं आगामी इन दोनों पर्यायों में अनादि काल से चले आये हुए वस्तु के अपने असली स्वभाब का नाश न होना (सुरक्षित रहना)-इस तरह ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों से युक्त सत् (द्रव्य) होता है। इन्हीं को गुण और पर्याय शब्द द्वारा व्यक्त करके 'मुणपर्ययवद् द्रव्यम्' कहा गया । अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है । अतः उक्त तीनों में ध्रौव्य का ही दूसरा नाम गुण है तथा उत्पाद और व्यय-ये द्रव्य की पर्यायें हैं । अतः दोनों परिभाषाओं में कोई अन्तर नहीं है । गुण द्रव्य में सदा विद्यमान रहता है और पर्यायें उत्पन्न तथा विनष्ट होती रहती हैं । पर्यायें भी गुण से अलग नहीं रहतीं। अर्थात कोई भी गुण पर्याय के बिना नहीं रहता और कोई पर्याय बिना गुण के नहीं होती। द्रव्य में गुण अन्वयी और सहभावी होते हैं किन्तु पर्यायें क्रमभावी होती हैं वे एक दूसरे से नहीं मिलती अतः पर्यायों का स्वभाव व्यतिरेकी होता है। पर्यायें प्रतिसमय बदलती रहती हैं और ये गुण एवं पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहे जाते हैं।" _____ यहाँ गुण और पर्याय का अर्थ समझ लेना भी आवश्यक है । जिसके द्वारा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अलग किया जाता है वह गुण कहलाता है अर्थात् अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाले द्रव्य के सहभावी (कभी अलग न होने वाला) धर्म (स्वभाव) को 'गुण' कहते हैं और द्रव्य के विकार को अर्थात् द्रव्य की
१. सर्वार्थसिद्धि ५।२।५२९ पृ० २०२. २. दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादन्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु ॥ पंचास्तिकाय १०. ३. सद्व्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । गुणपर्ययवद्र्व्यम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ५।२९,३०,३८. ४. सर्वार्थसिद्धि ५।२९-३०।५८२-५८४. ५. सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सूत्र २९,३० परा० ५८२-५८४ पृष्ठ २३७.
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