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४६८ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
होते हैं । तेजस् म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देव, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्ट लेश्या अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व लेश्या छोड़कर मनुष्यों और तियंचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोतलेश्या से परिणत हो जाते हैं ।"
हम देखते हैं कि कषायों के प्रतिफल स्वरूप कर्मबन्ध होता है, तदनुसार जीव पुण्य और पाप रूप फल भोगता है । जब तक कषाय है तब तक संसार वृद्धि होती रहती है । शुभ लेश्याओं से संसार निवृत्ति का संयोग बैठता है । जब व्रत, संयम, तप, धर्म आदि मोक्षानुकूल पुरुषार्थं जीव द्वारा होता है, तभी आत्मा के कर्म-मल को हटाया जाता है ।
लेश्या-विशुद्धि का उपक्रम - भगवती आराधना में
लेश्याओं की विशुद्धि का लेश्या में विशुद्धि आती होती है । जिसकी कषाय
उपक्रम बतलाते हुये कहा है कि परिग्रह के त्याग से है । परिणामों की विशुद्धि होने से लेश्या की विशुद्धि मन्द होती है उसके परिणामों में विशुद्धि होती है । जो बाह्य परिग्रह का त्याग करता है उसकी कषाय मन्द होती हैं, तथा जिसकी कषाय तीव्र होती है, वही सब परिग्रह रूप पाप को स्वीकार करता है । जैसे बाहर में तुष (छिलका) रहते हुए. चावल की आभ्यन्तर शुद्धि सम्भव नहीं हैं वैसे ही परिग्रही जीव के लेश्या की विशुद्धि सम्भव नहीं है । अन्तरंग में कषाय की मन्दता होने पर नियम से बाह्य परिग्रह का त्याग होता है । आभ्यन्तर में मलिनता होने पर ही जीव बाह्य परिग्रहों को ग्रहण करता है। जैसे इंधन से आग बढ़ती है और ईंधन के अभाव में बुझ जाती है वैसे ही परिग्रह से कषाय बढ़ती है और परिग्रह के अभाव में ही मन्द हो जाती है । इस प्रकार लेश्या में निरन्तर विशुद्धि होती जाती है । इन छह लेश्याओं द्वारा भावनाओं एवं विचार-तरंगों का जितना मनोवैज्ञानिक एवं शास्त्रीय सूक्ष्म विश्लेषण किया जायेगा उतनी ही इनकी महत्ता सिद्ध होगी क्योंकि मानसिक विचारों की श्रेणियों को ही लेश्या कहा गया है ।
द्रव्य स्वरूप विमर्श :
द्रव्य की परिभाषा - जैन धर्म-दर्शन में द्रव्य की अपनी विशिष्ट परिभाषा है । व्युत्पत्ति के आधार पर 'यथास्वं पर्याय यन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि - अर्थात् जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या
१. धवला १२१, १।५११, ६५६.
२. भगवती आराधना गाथा - १९०४ - १९०६, १९११, १९०९, १९०७.
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