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जैन सिद्धान्त : ४६७ पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यञ्चों और मनुष्यों में छहों लेश्यायें होती हैं। यहाँ पर भी किन्हीं जीवों के द्रव्यलेश्या अपने आयु-प्रमाण निश्चित है, किन्तु सभी जीवों की भाव लेश्या अन्तर्मुहुर्त में परिवर्तन करने वाली होती हैं क्योंकि कषायों की हानिवृद्धि से उनकी हानि-वृद्धि जानना चाहिए।
देवों में भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क को जघन्य तेजो लेश्या, सौधर्म और ईशान में मध्यम तेजोलेश्या, सानत्कुमार, माहेन्द्र इनमें उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र इन छहों में मध्यम पद्मलेश्या, शतार और सहस्रार इन दो में उत्कृष्ट पद्म तथा जघन्य शुक्ललेश्या; आनत, प्राणत, आरण और अच्युत सहित नवग्रेवेयकों में अर्थात् इन तेरहों में मध्यम शुक्ललेश्या, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर-इन चौदह विमानों में परम (सर्वोत्कृष्ट) शुक्ललेश्या होती है।
__ नरक पृथ्वियों में लेश्याओं का विधान इस प्रकार है-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, और महातमप्रभा-ये सात नरक की पृथ्वियां हैं। इनमें क्रमशः रत्नप्रभा नरक में जघन्य कापोतलेश्या, द्वितीय शर्करा में मध्यम कापोतलेश्या, तृतीय बालुकाप्रभा के ऊपरी भाग में उत्कृष्ट कापोतलेश्या और निम्न भाग में जघन्य नीललेश्या, चतुर्थ पंकप्रभा में मध्यम नीललेश्या, पंचम धूमप्रभा के ऊपरी भाग में उत्कृष्ट नीललेश्या तथा अधोभाग में जघन्य कृष्णलेश्या, षष्ठ तमप्रभा में मध्यम कृष्णलेश्या और सप्तम महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्णलेश्या होती है।
- इस तरह विभिन्न लेश्याओं का विभिन्न गतियों और जीवों में तरतमता से सद्भाव पाया जाता है। किन्तु मरण समय में निम्नलिखित प्रकार से लेश्यायें सम्भव होती हैं
प्रथम पृथ्वी से छठी तक के असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मनुष्यों में अपनीअपनी पृथ्वी योग्य लेश्याओं के साथ उत्पन्न होते हैं । अतः उनमें कृष्ण, नील, कापोत लेश्यायें पाई जाती हैं। इसी प्रकार देवगति से असंयत सम्यग्दृष्टि देव मरकर अपनी-अपनी पीत, पद्म, और शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न
१. एइंदियविलि दिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ । . संखादीदाऊणं तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं ॥ मूलाचार सवृत्ति १२।९६. २. मूलाचार वृत्ति १२।९४-९५. ३. मूलाचार वृत्ति १२।९३. ४. मूलाचार वृत्ति १२।९३.
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