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४६६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
लेश्या-वृक्ष का उपाहरण-गोम्मटसार' में वृक्ष से फल-प्राप्ति के एक उदाहरण के माध्यम से छह लेश्याओं के द्वारा छह व्यक्तियों के मनोभावों की दशाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। जिसका चित्र प्रायः जैन मन्दिरों की दीवारों पर भी चित्रित देखा जाता है, जो इस प्रकार है
कृष्ण आदि एक-एक लेश्या वाले छह पथिक वन में मार्ग भूल गये । क्षुधा, पिपासा से पीड़ित थके-हारे उन पथिकों ने उस वन के मध्य फलों से युक्त लहलहाता हुआ एक सघन वृक्ष देखा। इन छहों का बाह्य वर्ण भी कृष्ण, नील आदि रूप था। साथ ही अन्तरंग कषाय योग प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न थी। उस फल युक्त वृक्ष को देखकर-प्रयम कृष्णलेश्या वाला व्यक्ति विचार करता है कि मुझे इस वृक्ष के फलों से अपनी क्षुधा शान्त करना है, अतः इसके फल प्राप्ति के लिए इस वृक्ष को जड़ से ही उखाड़कर इसके फल खाऊँगा। दूसरा नीललेश्या वाला सोचता है-फलप्राप्ति के लिए समूचे वृक्ष को उखाड़ने की क्या जरूरत ? इसका मात्र स्कन्ध (तना) काटकर हो फल प्राप्त करके क्षुधा शान्त कर लूंगा । तीसरा कापोतलेश्या वाला व्यक्ति सोचता है कि इस वृक्ष की बड़ी डाल (शाखा) काटकर फल खाऊँगा । चौथा पीतलेश्या वाला व्यक्ति छोटी-छोटी टहनियों (शाखाओं) को काटकर फल खाने की इच्छा रखता है। पंचम पालेश्या वाला व्यक्ति वृक्ष के मात्र सीधे फलों को ही तोड़कर खाने की इच्छा रखता है। छठा शुक्ललेश्या वाला पथिक विचार करता है कि जमीन पर टूटकर गिरे हुये फलों को ही खाऊँगा । इसी प्रकार मन पूर्वक जो वचन होता है वह क्रम से उन लेश्याओं का कार्य होता है । इस उदाहरण में प्रथम पथिक से लेकर छठे तक के सभी पथिकों के मानसिक परिणामों की स्थिति उत्तरोत्तर विशुद्ध है। सभी पथिक फल तो खाना चाहते हैं, किन्तु उनकी प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है। इसी प्रकार कषायों के तर-तम भाव ही लेश्या के अनेक भेदों का जनक होता है। इस उदाहरण द्वारा लेश्याओं का स्पष्ट रूप-ज्ञान हो जाता है और यह मात्र परिणामों की तरतमता दिखलाता है।
जीवों में लेश्या का सद्भाव :-तिर्यञ्चों और मनुष्यों में लेश्याओं का इस प्रकार सद्भाव होता है-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रियों में कापोत, नील और कृष्ण-ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं । असंख्यात आयु वाले भोगभूमि के जीवों में तेज, शुक्ल और पद्म-ये तीन लेश्यायें होती हैं। शेष कर्मभूमिज
२. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५०७-५०८.
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