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जैन सिद्धान्त : ४६५.
गोम्मटसार के अनुसार षड्विध भावलेश्या की दृष्टि से जीव निम्नलिखितप्रकार के स्वभाव और विचारों के होते हैं '
१. कृष्ण - जो रागी, द्वेषी, अनन्तानुबन्ध क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त, निर्दय, कलह प्रिय, मद्य-मांस के सेवन में आसक्त दुष्ट स्वभाव का हो तथा जो किसी के वश का न हो – ये सब कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं ।
२. नील - जो बहुत निद्रालु, घमण्डी, मायावी, ठग, कायर, पंचेन्द्रिय-विषय लम्पटी, अनेक प्रकार के परिग्रह में आसक्त, अतिचपल हो तथा कार्य निष्ठा से रहित जीव नील लेश्या युक्त होते हैं ।
३. कापोत — जो पर की निन्दा, आत्म-प्रशंसा से प्रसन्न होता है, हानि-. लाभ को नहीं देखता, लड़ाई होने पर मरने-मारने को तैयार रहता है, दूसरोंको अच्छा न देख सकता हो, अविश्वासी, बहुत डर, शोक एवं ईर्ष्या करने वाला; जीव कापोत लेश्या वाला होता है ।
४. तेजो ( पीत) — जो अपने कर्तव्य अकर्तव्य तथा सेव्य असेव्य को जनता है, सबको समान रूप से देखता है, दया और दान में प्रीति रखता है, ज्ञानी तथा मृदु स्वभावी है, दृढ़ता, मित्रता, सत्यवादिता तथा स्वकार्यपटुता आदि गुणों से समन्वित जीव तेजो या पीत लेश्या से युक्त होता है ।
५. पद्म - जो त्याग और क्षमागुणों से युक्त भद्र परिणामी, सरल स्वभावी, शुभकार्य में उद्यमी, कष्ट तथा अनिष्ट उपद्रवों को सहने वाला, मुनि और गुरुजनों की पूजा में प्रीति रखने वाला पाण्डित्य युक्त जीव पद्म लेश्या वाला होता है ।
६. शुक्ल -- जो पक्षपात (माया) और निदान से रहित, सबमें समान भाव रखने वाला, इष्ट-अनिष्ट में राग-द्वेष रहित, पाप कार्यों से उदासीन, श्रेयोमार्ग में रुचि वाला, परनिन्दा रहित, पुत्र, मित्र और स्त्री में राग रहित — ये सब शुक्ल लेश्या से समन्वित जीव के लक्षण हैं ।
ये छहों लेश्यायें यथासंभव सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं । प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्म- साम्पराय गुणस्थान तक कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति से होने वाली लेश्यायें हैं तथा ग्यारहवें उपशान्तः मोह बारहवें क्षीणमोह तथा तेरहवें सयोगकेवली - इन गुणस्थानों में कषायों का अभाव हो जाने पर भी योग विद्यमान होने से इनमें शुक्ल लेश्या का सद्भाव होता है । अयोगकेवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान् लेश्या रहित है, क्योंकि इनमें योग का भी अभाव होता है ।
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५०९-५१७.
२. आचार्यश्री धर्मसागर अभिवन्दन ग्रन्थ पृ० ५०४.
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