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४६२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
प्रमाद, कषाय और योग-इन पाँच बन्ध के हेतु रूप आस्रवों एवं मोहनीय कर्म की प्रबलता तथा निर्बलता पर ही जीव की ये चौदह अवस्थाएँ निर्मित हैं । लेश्या :
लेश्या का स्वरूप : लेश्या की अवधारणा जैनधर्म की अपनी मौलिक और विशिष्ट अवधारणा है जिसमें जीवों के मनोभावों का अति सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया गया है। वस्तुतः जैन तत्त्वज्ञान का यह एक अपना विशेष मनोवैज्ञानिक पहलु है, जिसका विवेचन विपुल जैन साहित्य के अनेक प्रमुख ग्रंथों में किया गया है । लेश्या शब्द का अर्थ है आणविक-आभा, कान्ति, प्रभा या छाया ।' कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय रूप योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। लेश्या के इस लक्षण में मात्र कषाय और मात्र योग को लेश्या नहीं कहा अपितु कषायानुबिद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहा है। जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है । अथवा जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसे लेश्या कहते हैं।
जिस प्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरु मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है उसे लेश्या कहते हैं। इसीलिए जो आत्मा और प्रवृत्ति अर्थात् कर्म का सम्बन्ध करने वाली होती है उसे लेश्या कहा गया है । वस्तुतः कर्म पौद्गलिक होते हैं अतः आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे पुद्गल उसके चिन्तन को प्रभावित करते हैं। इसीलिए जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहा जाता है। अच्छे कर्म पुद्गल अच्छे चिन्तन में और अशुभ पुद्गल अशुभ चिन्तन में सहायक बनते हैं ।
१. लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिकास्निग्ध
दीप्तरूपाछाया।-उत्तराध्ययन वृहद्वृत्तिपत्र ६५०. २. (क) जोगपउत्तीलेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होई-गो० जीवकाण्ड ४९० ।
(ख) कषायोदय रञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या-सर्वार्थसिद्धि २।३. ३. लिम्पतीतिलेश्या कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारपेक्षित्वात्-धवला १।१, १, ४ पृ०.
१५०. ४. लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णिउउ पुण्ण पावं च ।
जीवो ति होइ लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खाया ॥ पंचसंग्रह, १११४२. ५. जह गेरुवेण कुड्डी लिप्पइ लेवेण आम पिठेण ।
तह परिणामो लिप्पइ सुहासुह य त्ति लेव्वेण ॥ पंचसंग्रह १४३.
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