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________________ जैन सिद्धान्त : ४६३ः लेश्या के भेद :-लेश्या के दो भेद हैं द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या ।' वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ शरीर का वर्ण अर्थात् शरीर के वर्ण और आण-- विक आभा को द्रव्यलेश्या तथा मोहनोय कर्म के उदय या क्षयोपशम या उपशम या क्षय से जो जीव के प्रदेशों की चंचलता होती है उसे भावलेश्या कहते हैं।' अर्थात् जीव के परिणामों और प्रदेशों का चंचल होना भावलेश्या है । वस्तुत : परिणामों का चंचल होना कषाय है और प्रदेशों का चंचल होना योग है । इसी से योग और कषाय से भावलेश्या होती है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से जीव के जो तीब्रतम आदि भाव होते हैं वह भी भावलेश्या है । सामान्यरूप में आत्मिक विचारों को भावलेश्या तथा उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहते हैं । द्रव्यलेश्या के ६ भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् (पीत), पद्म और शुक्ल । इनका एक-एक भेद अपने-अपने उत्तर भेदों द्वारा अनेक रूप है। सामान्य से ये ही छह भेद भावलेश्या के हैं किन्तु लेश्याओं के असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं । वर्गों (रंगों) के अनुसार जिस प्रकार विविध तारतम्य पाया जाता है उसी प्रकार भावों के तारतम्य से भावलेश्या के भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं। द्रव्य और भाव दोनों रूप छहों लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्यायें संक्लिष्ट होने से दुर्गति की ओर ले जानेवाली हैं तथा बाद की तीन लेश्यायें असं क्लिष्ट होने से दुर्गति की ओर ले जाने वाली हैं । लेश्याओं का सम्बन्ध शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों से है। अप्रशस्त और प्रशस्त इन द्विविध मनोभावों की तारतम्यता के आधार पर छह भेद बताये गये हैं।" १. लेश्या द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा-गोम्मटसार जी० जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका ४८९.. २. वण्णोदयसंपादिद सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा। मोहुदयखओवसमोवसखयज जीवफंदणं भावो ।। गो. जोवकाण्ड ५३६. ३. मूलाचार वृत्ति १२।९६, सर्वार्थसिद्धि २।६, पृ० १५९. ४. सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण-गो० जी० ४९४. ५. उत्तराध्ययन ३४।३. अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव १. कृष्ण-तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाव ४. तेजस-प्रशस्त मनोभाव (अशुद्धतम) (शुद्ध) २. नाल-तीव अप्रशस्त मनोभाव ५ पदम-तीन प्रशस्त मनोभाव (अशुद्धतर) (शुद्धतर) ३. कापोत-अप्रशस्त मनोभाव ६. शुक्ल-तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव (अशुद्ध) (शुद्धतम). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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