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जैन सिद्धान्त : ४६१
जाती है । यहाँ वेदनीयकर्म की भी कुछ शक्ति नष्ट हो जाती है । इससे क्षुवादि बाधा उत्पन्न नहीं होती । इस गुणस्थान में वे अर्हन्त अवस्था भी प्राप्त कर लेते हैं।' इसमें समवसरणादि परम विभूति के साथ विहार करते हुए तीर्थंकर के रूप में धर्म प्रवर्तन करके जीवों को दिव्य देशना के द्वारा उपदेश भी देने लगते हैं । सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति नामक तीसरे शुक्लध्यान के द्वारा योग नामक कर्म का निरोध करता है अतः उसे 'जिन' भी कहा जाता है ।
(१४) अयोगकेवली : - जिसमें योगों का सर्वथा अभाव हो जाता है अर्थात् मनोयोग, वचनयोग और काययोग से रहित अवस्था अयोगकेवली गुगस्थान है । जो केवल तीनों योगों से रहित होकर समस्त आस्रवों का निरोध करता हुआ नवीन कर्मों के बंध से रहित हो चुका है तथा जिसने शैलेश्य भाव को अर्थात् अठारह हजार शीलों के स्वामित्व को प्राप्त किया है वह अयोगकेवली कहलाता है । इस अवस्था में वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र – ये चार अवातिया कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ओर सम्पूर्ण कर्मनाश से आत्मा निर्मल हो जाती है । इस गुणस्थान का काल (अतर्मुहूर्त प्रमाण) समाप्त होने पर वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् मुक्त या सिद्ध बनकर सिद्धालय पहुँचते हैं । ये सिद्ध सम्पूर्ण कर्मों से रहित, सहज, अनुपम, अनंत, प्रतिपक्षरहित सुखों के स्वामी होते हैं । चरमदेह से किंचित् न्यून उनके आत्म प्रदेशों का आकार होता है । ये सिद्ध परमेष्ठी लोकाग्र-शिखर पर स्थित होते हैं ।
इस प्रकार प्रथम मिथ्यात्व से लेकर मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त तक चौदह आध्यात्मिक भूमिकाओं के रूप में ये गुणस्थान आत्मिक उत्क्रांति करने वाली आत्मा की उत्तरोत्तर विकाससूचक अवस्थाएँ हैं । वस्तुतः पूर्ण सत्य की प्राप्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा ज्ञाता - दृष्टा - चैतन्य स्वरूप आत्मा को शुद्ध रूप में प्राप्त कर लेने पर ही होती है । कर्मों की परिस्थितियों के अनुसार ही जीव के निर्मल या मलिन भाव उत्पन्न होते हैं । जीव के भावों का सम्बन्ध मोहनीय कर्म के साथ है और उसकी विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार ही जीव को चौदह आध्यात्मिक भूमिकायें उत्पन्न होती हैं । प्रथम से बारहवें गुणस्थान तक मोहनीय कर्म आत्मविशुद्धि में बाधक है । पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्मा की अवस्था का है। चौथे से बारहवें अन्तरात्मा की तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान परमात्मा की । इस प्रकार मिथ्यात्व, अव्रत,
गुणस्थान तक अवस्था के हैं
१. मूलाचार वृत्ति १२।१५५. २. वही ।
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