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________________ ४५८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सम्यग्दृष्टि जीव ही आरोहण करते हैं किन्तु उपमश श्रेणी पर तद्भव-अतद्भव मोक्षगामी एवं औपशमिक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं। (८) अपूर्वकरण-इसमें पहले कभी जिस अवस्था का अनुभव प्राप्त नहीं किया उस अपूर्वकरण (आत्मा के परिणाम) अर्थात् आत्म शुद्धि का अनुभव होता है । इस गुणस्थान में आगे-आगे विसदृश समयों में स्थित जीव जिन परिणामों को प्राप्त करते हैं वे पूर्व में नीचे के समयों में कभी प्राप्त नहीं हुए, इसीलिए इसका अपूर्वकरण नाम सार्थक है।' उपशम और क्षपक ये इसके दो भेद हैं। जो कर्मों का उपशम करते हैं उसे उपशम अपूर्वकरण कहते हैं । और जो क्षय करने में लगे हैं उन्हें क्षपक अपूर्वकरण कहते हैं। इसके क्षायिक सम्य क्त्व गुण होता है। वस्तुतः दर्शन मोहनीय का क्षय जब तक नहीं होता तब तक क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं हो सकता। जब कोई सातिशय अप्रमत्तसंयत मोहनीय कर्म का उपशम या क्षपण करने के लिए उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरण परिणाम करके इस गुणस्थान में प्रवेश करता है तब उसके परिणाम (करण) प्रत्येक क्षण में अपूर्वअपूर्व ही होते हैं, प्रत्येक समय उसको विशुद्धि अनन्तगुणी होती जाती है। यह गुणस्थान और इससे आगे बारहवें गुणस्थान तक के सब गुणस्थान ध्यानावस्था में ही होते हैं । इनका काल अत्यन्त अल्प (अन्तर्मुहूर्त प्रमाण) है । इस गुणस्यान को श्वेताम्बर परम्परा में निवृत्तिबादर भी कहा गया है । (९) अनिवृत्तिकरण-इसे बादर-साम्पराय३ या अनिवृत्तिबादर गुणस्थान नाम से भी जाना जाता है। जिन परिणामों के निमित्त से परस्पर में भेद नहीं पाया जाता उनको अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इस गुणस्थान में एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति अर्थात् भेद या विषमता नहीं पायी जाती अतः उन अनिवृत्ति परिणामों के कारण ही इसे अनिवृत्ति कहा जाता है । इस गुणस्थान. वर्ती जीव के परिणाम अत्यन्त निर्मल और कर्मरूपी वन को नष्ट करने वाले होते है । इसके उपशमक और क्षपक ये दो भेद हैं। उपशम श्रेणी वाला कुछ प्रकृतियों का उपशम करता है और कुछ का आगे के गुणस्थान में करेगा, अतः इसे औपशमिक गुणस्थानवाला कहते हैं। क्षपक श्रेणी वाला भी चारित्रमहोनीय कर्म प्रकृतियों के साथ ही अन्य प्रकृतियों का क्षय करता है और कुछ का आगे. १. गो० जीवकाण्ड ५१. २. मूलाचारवृत्ति० १२।१५५. ३. वही. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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