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जैन सिद्धान्त : ४५७ (६) प्रमत्त संयत (प्रमत्तविरत)--प्रमादयुक्त संयमवाले मुनियों को प्रमत्तसंयत कहते हैं। सकलसंयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने के कारण हिंसादि पाँच पापों का सर्वदेश त्याग होने से पूर्ण संयम (महाव्रती) तो हो चुका किन्तु उस संयम के साथ संज्वलन-कषाय और नोकषाय का उदय होने से संयम में मल उत्पन्न करने वाला 'प्रमाद' भी विद्यमान रहता है । इस तरह अहिंसादि महाव्रतों में असावधानी आ जाने के कारण प्रमाद भी उत्पन्न हो जाता है अतः इसे प्रमत्त संयत कहते हैं ।' स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, और राजकथा-ये चार विकथायें, क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय, पांच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह (प्रणय) ये पन्द्रह प्रमाद हैं। इनके कारण जो गुप्ति, समिति के विषय में प्रमाद युक्त भी हो जाता है वह प्रमत्तविरत है।
(७) अप्रमत्त संयत (अप्रमत्त बिरत)-जिसमें प्रमाद की तनिक भी शक्यता नहीं होती वह अप्रमत्तविरत गुणस्थान है। प्रमाद के नष्ट हो जाने पर इसमें अस्खलित संयम का पालन तथा ज्ञान-ध्यान में संलग्नता रहती है। पूर्वोक्त पन्द्रह प्रमादों से रहित संयमी मुनि को अप्रमत्त संयत कहते हैं । इस गुणस्थान में संज्वलन कषाय मंद हो जाती है । इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । इससे यदि वह परमविशुद्धि को प्राप्त कर लेता है तो ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ सकता है अन्यथा वह पुनः छठे गुणस्थान में आ जाता है । इससे लेकर आगे के सभी गुणस्थानों में अप्रमत्तता होती है।
वर्तमान काल में कोई भी साधु सातवें गुणस्थान से और उसमें भी स्वस्थानअप्रमत्तदशा से ऊपर नहीं चढ़ सकता, क्योंकि ऊपर चढ़ने योग्य उत्तम संहनन आदि के अभाव में श्रेणी अवरोहण की पात्रता नहीं है, किन्तु जिस काल में सभी "प्रकार की पात्रता और साधन-सामग्री सुलभ होती है उस समय साधु ऊपर के गुणस्थानों में भी चढ़ता है। ___ इस गुणस्थान से आगे अर्थात् आठवें गुणस्थान से जीवनोत्क्रान्ति के लिए दो श्रेणियों के द्वारा कर्मों का अभाव किया जाता है १-उपशम श्रेणी-(कर्मों के उदय को दबाना), २-क्षपक श्रेणी-(कर्मों को नष्ट करना) उपशम करने वाला अपने शुभभावों से कर्मों को दबाता जाता है, पर क्षपक वाला अपने शुद्ध भावों से कर्मों को नष्ट करता जाता है। क्षपक श्रेणी पर तद्भव मोक्षगामी क्षायिक
१. मूलाचार वृत्ति १२।१५४. २. वही. ३. आचार्य श्री धर्मसागर अभिवन्दन ग्रंथ-पृष्ठ : ४९२.
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