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________________ ४५६ : मूळाचार का समीक्षात्मक अध्ययन गुणस्मान में यही भिन्नता है कि पहले गुणस्थान वाला तो एकान्तरूप से तत्व को मिथ्या मान बैठता है । पर इस गुणस्थान में उसकी स्थिति संशय रूप होती है । इस गुणस्थान की विशेषता यह है कि इसमें न तो आयु का बन्ध होता है और न मरण । इसमें संयम या देश संयम को भी जीव ग्रहण नहीं कर सकता । " (४) असंयत ( अविरत ) सम्यग्दृष्टि : इस गुणस्थान के जीव की श्रद्धा यथार्थं होने से वह सम्यग्दृष्टि तो होता है पर व्रतों से रहित भी होता है । यह अन्तरंग में इन्द्रिय-सम्बन्धी विषयों से ग्लानि भी रखता है, सांसारिक बन्धनों से छूटना भी चाहता है किन्तु चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से संयम धारण नहीं कर पाता । मात्र तत्त्वों का दृढ़ श्रद्धान उसमें रहता है । औपशमिकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि (वेदक सम्यक्त्व ) - ये इसके तीन भेद हैं । 학 इन तीनों में औपशमिक और क्षायिक निर्मल हैं क्योंकि ये मलजनक सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से रहित हैं किन्तु क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के साथ जो उस सम्यक्त्व प्रकृति का उदय रहता है वह यद्यपि तत्त्वार्थ श्रद्धान के नष्ट करने में समर्थ नहीं है, पर उसके निमित्त से उसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोष सम्भव हैं । यहाँ तक के चारों गुणस्थान चारों गतियों के जीवों में सम्भव होते हैं । (५) वैशविरत : ( संयतासंयत ) - इस गुणस्थानवर्ती जीव त्रस जीवों की हिंसा से विरक्त होने से संयत और स्थावर प्राणियों की रक्षा में असमर्थ होने के कारण असंयत - - इस प्रकार दोनों रूप एक ही समय में होता है । ऐसा जीव देशव्रती (अणुव्रती ) होने के साथ-साथ सम्यग्दृष्टि भी होता है । चौथे गुणस्थान में आत्मसंयम का सर्वथा अभाव होता है परन्तु इस पंचम गुणस्थान में आत्मसंयम का आंशिक रूप विद्यमान रहता है । इस गुणस्थान की सीमा अणुव्रतों तक सीमित रहती है । इस गुणस्थान को देशसंयत, संयतासंयत, उपासक, श्रावक, विरताविरत आदि नामों से भी जाना जाता है । मनुष्य और तिर्यञ्च इन दो गतियों के जोव ही इस गुणस्थान के धारक हो सकते हैं, देव और नारकीय नहीं । और इनमें भी मनुष्य ही श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें धारण कर सकता है तिर्यंच नहीं । चारित्रिक विकास का शुभारम्भ तथा पूर्ण संयम की प्राप्ति का अभ्यास भी इसी गुणस्थान से होता है | १. गो० जी० २३, २४. २. मूलाचार वृत्ति १२ । १५४. ३. श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति ग्रन्थ ४।१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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