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जैन सिद्धान्त : ४५५
दृष्टि वाले होते हैं । जैसे पित्तज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी रुचिकर नहीं लगता, अपितु कड़वा प्रतीत होता है-उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के उदय में जीव को आत्महितकारी धर्म भी रुचिकर नहीं लगता। इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र प्रणीत-आगम, पदार्थ और आप्त आदि पर श्रद्धा न करके अययार्थ वस्तुतत्त्व में रूचि रखता है ।
२. सासादन सम्यग्दृष्टि-सम्यक्त्व की विराधना (नाश) को आसादन और इससे युक्त को सारसदन कहते हैं। मिथ्यात्वकर्म के उदय को हटाकर जीव सम्यग्दृष्टि बनता है । सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता है यही बीच की स्थिति सासादन गुणस्थान की है । अर्थात् जो सम्यक्त्व से च्युत हो चुका है पर अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, उस स्थिति को इस गुणस्थान का नाम दिया गया है । इस गुणस्थान में जीव एक समय से लेकर अधिक से अधिक छह आवली काल तक रहता है। उसके बाद वह नियमतः मिथ्यादृष्टि हो जाता है । काल के सबसे सूक्ष्म अंश को समय कहते हैं, ऐसे असंख्यात समयों की एक आवली होती है। छह आवली प्रमाण काल एक मिनट से भी बहुत छोटा होता है। गोम्मटसार में कहा है जिस प्रकार कोई पर्वत के शिखर से गिरकर जबतक भूमि में नहीं आता तब तक उसकी जो बीच की स्थिति होती है वह स्थिति भव्य जीव की है जो उपशम सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो चुका है पर मिथ्यात्व को अभी प्राप्त नहीं हआ है-उसके अभिमुख है, इसे सासादन गुणस्थान कहते हैं ।
(३) मिश्र : (सम्यग्मिथ्यादृष्टि)-इसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों की मिश्रित स्थिति होती है। इस गुणस्थान वाले जीव के परिणाम न तो शुद्ध सम्यक्त्व रूप ही रहते हैं और न शुद्ध मिथ्यात्वरूप ही रहते हैं किन्तु दही और गुड़ के मिश्रित (खट्टे और मीठे) रूप के समान होते हैं अर्थात् एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं । यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा यह गुणस्थान ऊँचा है तथापि मिश्र परिणामों के कारण यथार्थ प्रतीति नहीं रहती। इस गुणस्थान का काल अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान में यदि सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आ जाये तो वह चतुर्थ गुणस्थान को अन्यथा सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। प्रथम गुणस्थान और इस
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २०. २. दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं णेव कारिदु सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति णायन्वो ॥ गो० जीवकाण्ड २२.
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