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४५४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
इस प्रकार सांसारिक दृढ़ बन्धनों से लेकर पूर्ण मुक्त होने तक की अवस्था तक पहुँचने की चौदह भूमिकायें (आत्मा की स्थिति विशेष ) हैं । इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि आत्मिक गुणों के अल्पतम विकास से लेकर उसके सम्पूर्ण विकास तक की समस्त भूमिकाओं को ही चौदह भागों ( गुणस्थानों) में विभाजित किया गया है अर्थात् मोक्षरूपी महल के शिखर पर चढ़ने के लिए ये गुणस्थान सोपानों ( सीढ़ियों) के समान माने गये हैं ।
शास्त्रीय दृष्टि से दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और परिणामरूप अवस्था विशेषों के होने पर उत्पन्न होनेवाले जिन मिथ्यात्व आदि परिणामों से जीव देखे जाते हैं या परिचय में आते हैं उन्हें गुणस्थान कहते हैं 12 जीव के स्वभावभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के उपचय और अपचय से जो उनके स्वरूप भेद होता है उसे भी गुणस्थान कहा गया है । ३
ये चौदह गुणस्थान इस प्रकार है - मिध्यादृष्टि, सासादन, मिश्र ( सम्यक् - मिथ्यादृष्टि ), असंयत (अविरत ) सम्यकदृष्टि, देशविरत ( देशसंयत), प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसांपराय, उपशांत मोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलो और अयोगकेवली ।
१. मिथ्यादृष्टि : - विपरीत तत्त्व श्रद्धान ( रुचि ) ही मिथ्यादृष्टि है । विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान ये इसके पांच भेद है । ये पाँचों मिथ्यात्वश्रद्धान मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं तथा अतत्त्व श्रद्धान जिन्हें उत्पन्न हुआ है ऐसे अनेकान्त धर्मात्मक वस्तुस्वरूप से पराङ्गमुख जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है ।" ऐसे जीवों को अपने हेय - उपादेय का कुछ भी ज्ञान नहीं होता । ये सदा विषयों में मस्त, अज्ञान में रत और विपरीत
१. गुणस्थानेषु परमपद - प्रासाद शिखरारोहणसोपानेषु कर्मस्तवस्वोपज्ञवृत्ति - १. २. जेहि दुलक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं ।
जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहि । गो० जीवकाण्ड ८.
३. कर्मस्तव - गोविन्दगणी वृत्ति १. पृष्ठ ७०.
४. मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव ।
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देसविरदो पत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ॥ तो अव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य ।
उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य । मूलाचार १२।१५४-१५५. ५. मूलाचार वृत्ति १२।१५४ ॥
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