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जैन सिद्धान्त : ४५३ को संयम में स्थिर करता है तो उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । यह चारित्र भी छठे से नवम गुणस्थान तक होता है ।
(३) परिहारविशुद्धि-अत्यन्त कठिन और निर्मल यह चारित्र धीर तथा गुण गम्भीर, उच्चदर्शी उन्हीं श्रमणों को होता है जो जन्म से लेकर तीस वर्ष की अवस्था तक सुखपूर्वक घर में रहा और फिर तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व का अध्ययन कर लेता है । वस्तुतः प्राणिवध से निवृत्त होना परिहार है तथा इस शुद्धियुक्त चारित्र को परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं । योगसार में कहा है कि मिथ्यात्वादि के परिहार से सम्यग्दर्शन में होने वाली विशुद्धि को ही शीघ्र मोक्ष सिद्धि प्राप्त कराने वाला परिहारविशुद्धि चारित्र कहा है।' जिनके यह चारित्र होता है उनके शरीर से जीवों की विराधना (हिंसा) नहीं होती । यह छठे एवं सातवें गुणस्थान में होता है।
(४) सूक्ष्मसाम्पराय-जिस अवस्था में कषायवृत्तियाँ क्षीण होकर किंचित् रूप में हो अवशिष्ट रही हों अर्थात् जब अतिसूक्ष्म लोभकषाय का उदय रहता है लब यह चारित्र होता है । यह दसवें गुणस्थान में होता है ।
(५) ययाख्यात-सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिर होना वीतराग या यथाख्यात चारित्र है। द्रव्यसंग्रह टीका में कहा है-जैसे आत्मा का स्वरूप, सहज, शुद्ध स्वभाव एवं कषायरहित होता है वैसे ही अख्यात कहा जाता है ।२ अर्थात् जिसमें किसी भी कषाय का उदय न होकर या तो वह उपशान्त रहता है या क्षीण । यह चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। गुणस्थान: । गुणस्थान जैन धर्म-दर्शन की मौलिक अवधारणा है जिसमें आत्मा से परमात्मा बनने में आत्मा के क्रमिक विकास को दर्शाया गया है । वस्तुतः मोह तथा मन-वचन-कायरूप योग की प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होनेवाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहा गया है। क्रमिक आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से संसार के समस्त प्राणियों को चौदह भागों में विभाजित किया गया है। आध्यात्मिक विकास के इस क्रम को गुणस्थान कहते हैं । गुण का अर्थ 'जीव के भाव' और स्थान का अर्थ 'क्रम' है । अथवा गुणों अर्थात् आत्मशक्तियों के, स्थानों-विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं।
१. योगेन्दुदेवकृत योगसार १०२. २. द्रव्यसंग्रह टोका, ३५।१४८.
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