SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सिद्धान्त : ४५९ करेगा। इसलिए इसको क्षपक गुणस्थानवाला कहते हैं। अर्थात् इस गुणस्थान वाले जीवों में से कुछ जीव तो अत्यन्त निर्मल भावों के द्वारा महामोहरूपी शत्रु का क्षय करते हैं और कितने ही उसका उपशमन करते हैं । (१०) सूक्ष्मसाम्पराय :-सूक्ष्मसाम्पराय का अर्थ र म लोभकषाय है । इस गुणस्थानवी जीव के कषाय सूक्ष्म होते हैं अतः इसका नाम सूक्ष्मसापराय है । इस अवस्था में क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय तो नष्ट हो जाती है मात्र सूक्ष्म लोभ कषाय ही अस्थिपंजर के रूप में रह जाती है । इस गुणस्थान के भी क्षपक और उपशमक ये दो भेद हैं ।' सातवें गुणस्थान के जिस सातिशय अप्रमत्त भाग से यह जीव ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है वहीं से उनकी दो धारायें हो जाती हैं । प्रथम उपशम श्रेणी की और दूसरी क्षपक श्रेणी की। मोहकर्म के क्षय करने की जिस जीव में योग्यता नहीं होती, जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होता वह उप शम श्रेणी चढ़ता है तथा जिसमें ये योग्यतायें होती हैं वह क्षपक श्रेणी चढ़ता है । . आठवाँ, नवाँ दसवाँ एवं ग्यारहवां-ये चार गुणस्थान उपशम श्रेणी की अपेक्षा है तथा आठवाँ, नवाँ, दसवाँ और बारहवाँ-ये चार गुणस्थान क्षपक श्रेणी की अपेक्षा होते हैं। इसीलिए गोम्मटसार में कहा है चाहे उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाला हो या क्षपक श्रेणी का, पर जो जीव सूक्ष्मलोभ के उदय का अनुभव कर रहा है वह दसवाँ गुणस्थानवर्ती जीव यथाख्यात चारित्र से कुछ ही न्यून रहता है । अर्थात् सूक्ष्मलोभ प्रकृति को उपशम श्रेणी वाला जोव तो अन्तिम समय में उपशमन करके ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है तथा क्षपक श्रेणी वाला जीव उसका क्षय करके दसवें से सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है। (११) उपशान्त-कषाय (उपशान्त मोह)-सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणाम को उपशांत कषाय या उपशान्त मोह गुणस्थानवर्ती कहते है । यहाँ उपशांतमोह का अर्थ ही किञ्चित् काल के लिये मोहनीय कर्म का शान्त हो जाना या दब जाना है। वैसे फिर वह पुनः राख से ढकी हुई आग की तरह भभक सकता है । पंचसंग्रह में कहा है जैसे मैले (गन्दे) पानी में फिटकरी आदि डालने पर उसका मलभाग नीचे बैठ जाता है और ऊपर का जल स्वच्छ हो जाता है वैसे ही उपशम श्रेणी रूप परिणामों के द्वारा शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म एक अन्तर्मुहुर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है जिससे १. मूलाचार वृत्ति १२।१५५. २. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६०. ३. मूलाचार वृत्ति १२।१५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy