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जैन सिद्धान्त : ४५१
आचरण करना मात्र चारित्र है । जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है, उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के उपरम होने को सम्यक् चारित्र कहते हैं ।" राग और द्वेष को दूर करने के लिए ज्ञानी पुरुष की जो चर्या होती है वह भी सम्यक् चारित्र है । सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पूर्वक मूलगुणों एवं उत्तरगुणों अर्थात् व्रत, समिति, गुप्ति आदि तथा उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों का पालन करना सम्यक्चारित्र है । मूलाचार में अकषाय भाव को चारित्र कहा है । तथा द्रव्य संग्रह में अशुभ कार्यों से निवृत्ति एवं शुभ कार्यों में प्रवृत्ति को चारित्र कहा गया है ।
वस्तुतः चारित्र ही धर्मं है । यह धर्म साम्यभाव रूप है तथा यह साम्यभाव राग-द्वेष-मोह के अभाव से प्राप्त होता है । अर्थात् मोह क्षोभ उद्वेगता से रहित आत्मपरिणति ही धर्म है । यहाँ जिस चारित्र को धर्म कहा गया है, वह चारित्र तत्वज्ञान से पुष्ट होता है । आगम में इसे "शील" कहा है। शील के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना शील की प्रवृत्ति नहीं होती । इन्द्रियों के विषयों से विरक्त रहने वाले व्यक्ति हो शीलवान् होते हैं और वे ही निर्वाण प्राप्त करते हैं । इसीलिए मूलाचार में चारित्र की प्रधानता बतलाते हुए कहा है कि अच्छीतरह पढ़ा हुआ, गुना हुआ भी सम्पूर्ण श्रुतज्ञान निश्चित रूप से भ्रष्ट चारित्र श्रमण को सुगति प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है अर्थात् यथार्थ चारित्र का पालन करने वाला अल्पज्ञ श्रमण भी बहुश्रुत किन्तु चारित्रहीन भ्रमण से श्रेष्ठ है । जैसे हाथ में दीपक लेकर भी व्यक्ति कुआँ में गिरता है तो इसमें बेचारे दीपक का क्या दोष ? उसी तरह यदि कोई शिक्षित होकर भी अन्याय करता है - अर्थात् श्रुतज्ञान का अध्ययन करके भी कोई श्रमण चारित्र भंग करता है तो उस श्रुतज्ञान रूप शिक्षा का क्या फल ? अर्थात् वह शिक्षा व्यर्थ है । शिक्षा का फल तो • सदाचारयुक्त चारित्र का अनुष्ठान करना है ।" दीक्षा आदि में वर्षों की गणना
- १. सर्वार्थसिद्धि १।१।५-६ पृ० ४-५.
२. अकसायं तु चारितं - मूलाचार १०।९१.
३. असुहादो विणिवित्तो, सुहे पवित्तिय जाण चारितं - - द्रव्य संग्रह ४५.
४. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्तिणिदिट्ठो ।
मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणी हु समो ॥ प्रवचनसार १1७.
५.
सव्वं पि हि सुदणाणं सुट्टु सुगुणिदं पि सुठु पढिदं पि । समणं भट्ठचरितं ण हु सक्को सुग्गइं णेदु ॥
अदि पदि दीवहत्थो अवडे कि कुणदि तस्स सो दीवो ।
- जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि किं तस्स सिक्खफलं ॥ मूलाचार १०११४-१५.
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