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________________ -४५० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन अवधि और मन:पर्यय – ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते हैं । इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक नहीं है । ये दोनों रूपी द्रव्यों के ज्ञान तक ही सीमित है अतः इन्हें अपूर्ण प्रत्यक्ष कहा जाता है । अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का जितना सूक्ष्म अंश जाना जाता है उससे अनन्त गुणा अधिक सूक्ष्म अंश मन:पर्यय के द्वारा जाना जाता है । अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान मनुष्यगति में, वह भी संयत जीवों को ही होता है । इस पंचम काल में अवधिज्ञान का होना तो यहाँ सम्भव भी है किन्तु मन:पर्ययज्ञान होना दुर्लभ है । अवधि और मन:पर्यय की मोक्षमार्ग में अनिवायता नहीं हैं जबकि मति और श्रुतज्ञान अनिवार्य हैं । ५. केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है । इसमें लोक- अलोक समस्त रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं । " वस्तुतः आत्मा ज्ञान स्वभाव है, अतः आत्मा के समस्त आवरणों के समाप्त हो जाने पर अपने स्वभाव रूप हो जाता है और समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ जानने लगता है । 'केवल' शब्द असहाय वाची है । इसीलिए जो इन्द्रिय और आलोक आदि किसी की अपेक्षा नहीं रखता, वह केवलज्ञान है । इसके होने पर आत्मा परमात्मा रूप बनकर सर्वज्ञ हो जाता है । यह तो वह दिव्य ज्ञान है जिसमें नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायें भी प्रतिबिम्बित होती हैं । सूर्य के प्रताप और ज्ञान सामान्य तो प्रत्येक प्राणी में होता है किन्तु सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है और मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान अत्यावश्यक है क्योंकि चारित्रहीन ज्ञान, दर्शन रहित मुनिदीक्षा तथा संयम रहित तप निरर्थक ही होता है । सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है कि जैसे मेत्रपटल हटते ही प्रकाश एक साथ प्रकट हो जाते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व का आवरण दूर होने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ प्रकट हो जाते हैं । ज्ञान और दर्शन यद्यपि दो भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हैं फिर भी ये समकाल में ही होते हैं और कार्यकारण-भाव होने तथा लक्षण भिन्न होने से इन दोनों में भिन्नता है । दर्शन कारण है एवं ज्ञान कार्य है । सम्यग्दर्शन तत्त्व-रुचि रूप है तथा सम्यग्ज्ञान तत्त्वबोध रूप है । ३. सम्यक् चारित्र चारित्र शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है 'चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् - अर्थात् जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या १. उपर्युक्त विषय सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक अध्याय १ सूत्र ९-२९ पर आधारित है । Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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