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-४४८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
पदार्थों का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार से उनका संशय विपर्यय - अनव्यवसाय रहित यथावस्थित अधिगम करना सम्यग्ज्ञान है । वट्टकेर के अनुसार जिसके सामर्थ्य से तत्त्व का विशिष्ट ज्ञान होता है, मनोव्यापारों का निरोध तथा आत्मा को विशुद्ध किया जा सकता है । आत्मा काम, क्रोध आदि रागभावों से "विरक्त हो जाता है; जिसके प्रभाव से आत्मा कल्याणकारण मोक्षमार्ग में अनुरक्त होता है और प्राणियों में मैत्रीभाव बढ़ाता है जिनशासन में उसे सम्यग्ज्ञान कहा गया है । सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है कि जैसे मेघपटल हटते ही सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रकट हो जाते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व का आवरण दूर होने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ प्रकट हो जाते हैं ।
वस्तुतः ज्ञानरूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है, जिसका हवा आदि कोई भी पदार्थ प्रतिघात ( विनाश) नहीं कर सकता । सूर्य का प्रकाश तो तीव्र होते हुए भी अल्पक्षेत्र को ही प्रकाशित करता है किन्तु यह ज्ञान - प्रदीप समस्त जगत् को प्रकाशित करता है अर्थात् समस्त वस्तुओं में व्याप्त ज्ञान के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है । इसीलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है । सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है । ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मंत्री भाव से प्रभावित होता है। ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना
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और तप आदि प्राप्ति की को अमृतरूप जल से तृप्त सम्यग्ज्ञान के भेद :
इच्छा करना व्यर्थ है ।' करने वाला होता है ।
मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल - ये सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं । वैसे ज्ञान सामान्य एक ही है किन्तु कर्म के क्षय-क्षयोयशम आदि के निमित्त से ये पाँच भेद किये गये हैं ।
१. मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान
१. मूलाचार ५।७०-७१.
२. सर्वार्थसिद्धि १।१।७ पृ० ५.
मोक्ष का उपायभूत चारित्र अतः सम्यग्ज्ञान संसारी जीवों
३. णाणुज्जोवो जीवो णागुज्जोत्रस्स णत्थि पडित्रादो ।
दीवेइ खेत्तम सूरो गाणं जगमसेसं ॥ भ० आ० ७६८.
४. मूलाचार ५१८५-८६.
५. भ० आ० ७७१.
६. मतिश्रुताविधिमनः पर्यय केवलानिज्ञानम् -- तत्त्वार्थसूत्र १1९.
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