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४४६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन विचलित नहीं होता। क्योंकि सम्यग्दर्शन वह विवेक-सूर्य है जिसके उदित होने पर मिथ्यात्व आदि अपने-आप भाग जाते हैं । यह व्यक्ति-स्वातंत्र्य को प्रतिष्ठित करने का सर्वोत्तम साधन है। यह जीवन का प्रमुख स्रोत होने से जीव अपनी स्वतन्त्रता का अनुभव करने लगता है । उसे जीवन-मरण का भय नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि जीव को यह दृढ़ श्रद्धान रहता है कि जिस द्रव्य का जो गुण एवं स्वभाव है, वह उसका उसी में रहता है। वह अपने को कर्ता एवं भोक्ता नहीं मानता। क्योंकि वह जानता है कि द्रव्य परिणमनशील है अतः प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति-पर्याय या अवस्था का ही कर्ता और भोक्ता है कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य की पर्याय का कर्ता एवं भोक्ता नहीं है । यह आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा भाव (सत्ता) रूप है तथा अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य जो चेतन, अचेतन रूप अनन्त पदार्थ हैं, वे सब पर-द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा अभाव रूप है। इसीलिए वह ज्ञानी स्वयं को ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म तथा राग-द्वेष आदि भावकर्म तथा शरीर आदि नोकर्म से नितान्त भिन्न अनुभव करता है। जो अपने को पर का कर्ता-भोक्ता अनुभव नहीं करता उसका ज्ञान आनन्दमय स्वभाव वाला है, वह तो आनन्द की परिणति का कर्ता है । इस तरह उस जीव को आत्म-द्रव्य का इतना भेद विज्ञान हो जाता है कि वह आत्मद्रव्य से अतिरिक्त किसी भी द्रव्य में अपना स्वामित्व नहीं समझता। और जब वह परद्रव्यों का कर्ता-भोक्ता अपने को नहीं मानता, तब उस जीव को कर्म-बंध भी नहीं हो सकता। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा के विश्वास का केन्द्र है। सम्यग्दर्शन के भेद :
उत्पत्ति की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं२-१. निसगंज (उपदेश रूप बाह्य निमित्त के बिना) अर्थात् स्वभावतः और २. अधिगमज अर्थात् उपदेश आदि बाह्य निमित्त के द्वारा ।
व्यवहार तथा निश्चय-ये नय दृष्टि से सम्यग्दर्शन के दो भेद भी हैं। हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन तथा सच्चे गुरु में श्रद्धा होना, आप्त, आगम और तत्त्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है तथा जीवादि सात तत्त्वों से रहित शुद्ध आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है।
१. संयम प्रकाश उत्तरार्द्ध २ पृष्ठ ८८.. २. तन्निसर्गादधिगमाद्वा-तत्त्वार्थसूत्र १।३.
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