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जैन सिद्धान्त : ४४५ अत: जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन तत्त्वों का स्वरूप निश्चित ही तथ्य (सत्य) रूप है-इस प्रकार का श्रद्धान और उनका परमार्थ रूप से ग्रहण करना सम्यग्दर्शन है तथा इसके विपरीत मिथ्यादर्शन है ।' धवला के अनुसार आप्त, आगम और पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं । इनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट छह द व्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थों का आज्ञा अर्थात् आत्म वचन के आश्रय अथवा अधिगम (प्रमाण, नय निक्षेप और निरुक्ति रूप अनुयोगद्वारों) से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं । तत्त्वों में श्रद्धान का अर्थ है तत्त्वों का स्वरूप जानकर उनमें से हेय तत्त्वों को छोड़ना तथा उपादेय तत्त्वों को ग्रहण करना । व्रत, मूलगुण, उत्तरगुण, शील, परीषह जय, चारित्र, तप, षडावश्यक, ध्यान और अध्ययन-ये सब सम्यक्त्व के बिना भव-बीज (संसार के कारण) हैं। सम्यग्दर्शन की महत्ता
रत्नत्रय में आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व सम्यग्दर्शन का है । सम्यदर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति ही वास्तव में भ्रष्ट है, क्योंकि उसे तीन काल में भी निर्वाण सम्भव नहीं है । चारित्रहीन तो कदाचित् सिद्ध हो भी सकता है, किन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते ।५ सम्यक्त्वविहीन जीव हजारों-करोड़ वर्षों तक भलीभाँति उग्रतप करके भी बोधिलाभ नहीं कर पाते किन्तु सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है। ___ वस्तुतः सम्यग्दृष्टि जीव दृढ़ श्रद्धान वाला होता है। प्रत्येक क्षण उसकी विवेक-शक्ति सदा जागृत रहती है। विपत्ति पड़ने पर भी वह न्यायमार्ग से
१. जं खल जिणोववदिळं तमेव तत्थित्ति भावदो गहणं ।
सम्मइंसण भावो तविवरीदं च मिच्छत्तं ॥ मूलाचार ५।६८. २. धवला १।१, १, ४, पृ० १५२. ३. छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्टाणं ।
आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।। धवला १११,१,४ पृष्ठ १५३. ४. रयणसार १२१. ५. दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिझंति चरियभट्ठा सणभट्ठा ण सिज्झंति ॥ दसण पाहुड ३. ६. वही ५. ७. मोक्खपाहुड ३९.
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