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________________ ४४४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (हित) और अश्रेयस (अहित) को जान लेता है । श्रेयस और अश्रेयस के विवेक ज्ञान से युक्त जीव दुःशीलों का विनाश करके शीलवान् बनता है और इससे सम्पूर्ण चारित्र रूप अभ्युदय प्राप्त करके निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करता है । इस प्रकार जैसे रत्न दुर्लभ होते हैं परन्तु उनकी प्राप्ति होने पर उनसे अभिलषित पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र रूप रत्नत्रय भी दुर्लभ हैं किन्तु इनकी प्राप्ति से जीवों को मोक्षरूपी अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति हो जाती है। ये तीनों अलग-अलग नहीं अपितु एक दूसरे के पूरक होने के कारण एक रूप ही हैं। समयसार में कहा ' क साधु वेष और गृहस्थ वेष जैसे अनेक प्रकार के द्रव्यलिंग रूप वेष मोक्ष का मार्ग नहीं है। इसीलिए अर्हन्तदेव भी देह से ममत्त्वहीन होकर दर्शन, ज्ञान और चरित्र का सेवन करते हैं। इन तीनों साधनों की क्रमशः पूर्णता होने पर ही आत्मा परद्रव्य से सर्वदा मुक्त होकर पूर्ण विशुद्ध होता है । अतः ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन माने जाते हैं । इनमें से एक भी साधन के अपूर्ण रहने पर परिपूर्ण मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । क्योंकि सम्यग्ज्ञान का कारण सम्यग्दर्शन है और ये दोनों मिलकर सम्यक्चरित्र का कारण हैं । इस प्रकार रत्नत्रय स्वरूप त्रिविध साधनामार्ग मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है । शिवार्य ने जिनेन्द्रदेव के रत्नत्रय युक्त उस धर्मचक्र को सदा जयशील बतलाया है जिसकी नाभि सम्यग्दर्शन है, द्वादशांग रूप वाणो आरे (अर) हैं, व्रत नेमि हैं और ता धारा अर्थात् दूसरी नेमि है ।" १. सम्यग्दर्शन सम्यक्-दर्शन का अर्थ है तत्त्वार्थ का सच्चा श्रद्धान् । वस्तुतः धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। क्योंकि इसके द्वारा जीव दृढ़ विश्वासी बनकर यथार्थ दृष्टि प्राप्त कर लेता है । रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ और मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल है।' १. सम्मत्ताणो णाणं णाणादो सव्व भावउवलद्धी । उवलद्धपयत्थो पुण सेयासेयं वियाणादि ॥ मूलाचार १०।१२. २. वही १०।१३. ३. भ० आ० विजयोदया १२७.।.० ३०४. ४. समयसार ४०८, ४०९. ५. भ० आ० १८५९. ६. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्-तत्त्वार्थसूत्र ११२. ७. दंसण मूलो धम्मो-दसणपाहुड २. ८. सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्ख मूल मिदि। रयणसार ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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