________________
४४२ : मूलाचार की समीक्षात्मक अध्ययन
क्षेत्र हैं । बिना उल्लंघन के ये सदा सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हुए घूमते रहते हैं। इसी से दिन, रात, ऋतुयें आदि होती हैं ।
इस प्रकार लोक के विवेचन में जीवों के निवास के विषय में क्षेत्र और द्रव्य प्रमाण इस प्रकार बताया गया है -- एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जोव ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक में होते हैं किन्तु सभी विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तिर्यक् लोक में ही रहते हैं । पंचेन्द्रिय जीव अधो, उर्ध्व फिर भी वे तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में रहते हैं क्षेत्र की दृष्टि से लोक के संख्यात और असंख्यात भाग में रहते हैं । "
ओर मध्य लोक में हैं
।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी
भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये देवों के चार निकाय हैं । २ इनमें से अधोलोक की प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भागों में से खर एवं पंक भाग में भवनवासी तथा व्यन्तरवासी देवों के निवास हैं ओर अन् बहुल भाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकी लोगों के आवास हैं । भवनवासी देव दस हैं-असुर कुमार, नाग कुमार, विद्युत् कुमार, सुपर्ण कुमार, अग्नि कुमार, वात कुमार, स्तनित कुमार, उदधि कुमार, द्वीप कुमार और दिक्कुमार । ये देव अधिकतर भवनों में ही निवास करते है अतः ये भवनवासी हैं । इनमें से असुर कुमारों के भवन रत्नप्रभा भूमि के पङ्क बहुल भाग में हैं और शेष नौ प्रकार के खर पृथ्वी भाग के मध्य में हैं ।
यक्ष,
राक्षस,
व्यंतर देवों के आठ भेद हैं-- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, भूत और पिशाच । विविध देशान्तरों में निवास करने के कारण दूसरे निकाय के देव व्यन्तर कहलाते हैं । खर पृथ्वी भाग में सात प्रकार के व्यक्तरों के आवास हैं और राक्षसों के आवास पंक बहुल भाग में बने हैं ।
तृतीय ज्योतिष्क निकाय के देव पाँच प्रकार के हैं -- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा । ये स्वयं ज्योतिःस्त्रभाव अर्थात् प्रकाशमात् (चमकोले) होने से ये ज्योतिष्क कहलाते हैं ।
-
-
चतुर्थ वैमानिक निकाय देवों के कल्पोपपन्न और कल्पातीत- इन दो भेदप्रभेदों का विवेचन किया जा चुका है । वस्तुतः ज्योतिष्क देव भी विमानों में रहते हैं किन्तु रूढ़ि से 'वैमानिक' संज्ञा केवल चतुर्थ निकाय के देवों को ही प्राप्त है ।
१. मूलाचार १२।१६०.
२. तत्त्वार्थसूत्र ४। १ - १९ सं० पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org