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४४० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
कान्ता, सीता-सीतोदा, नारी - नरकान्ता, सुवर्णकूला रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदाये नदियाँ बहती हैं ।"
वैदिक परम्परा के विष्णु पुराण में कहा है - इस पृथ्वी पर जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर – ये सात द्वीप हैं । लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सर्पिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल -- ये सात समुद्र हैं । जो चूड़ी के आकार रूप में एक दूसरे को वैष्टित करते हैं । ये द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तार वाले हैं । २
मूलाचार के अनुसार सोलह द्वीप हैं -- जम्बू, धातकीखंड, पुष्करवर, वारुणीवर, क्षीरवर, घृतवर, क्षौद्रवर, नंदीश्वर, अरुण, अरुणभास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर, भुजगवर, कुशवर और क्रौंचवर । इस प्रकार मध्यलोक जिसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं, इसमें असंख्यात द्वीप - समुद्र द्विगुण - द्विगुण विस्तारवाले हैं । सोलह द्वीपों में पुष्करवरद्वीप के बीचों-बीच मानुषोत्तर पर्वत है, इसी के कारण इसके दो भाग हो जाते हैं । अतः जंबूद्वीप और धातकीखण्ड संहित आधा पुष्करवर द्वीप को मिलाकर अढ़ाई द्वीप बनते हैं । इन्हीं अढ़ाई - द्वीपों में मनुष्यों का निवास है इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है ।
उर्ध्वलोक-मेरु पर्वत की चूलिका से एक बाल (केश ) मात्र अन्तर से उर्ध्वलोक प्रारम्भ होकर लोक शिखर पर्यन्त १००४०० योजन कम सात राजू प्रमाण है । इसमें मुख्य रूप से वैमानिक देवों का निवास है अतः इसे देवलोक, स्वर्गलोक आदि कहते हैं । उर्ध्वं लोक के दो भाग हैं- -कल्प और कल्पातीत । जिन स्वर्गों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक ये दस कल्पनाओं युक्त देव पद होते हैं, उन्हें कल्प कहते हैं तथा कल्पों में उत्पन्न देव 'कल्पोत्पन्न' कहलाते हैं । और सोलहवें कल्प से ऊपर इन कल्पनाओं से रहित अर्थात् कल्पों से ऊपर के अहमद्र देव 'कल्पातीत' विमानवासी कहलाते हैं । यहाँ देवों में किसी तरह का भेद नहीं होता । वे सभी अहमिन्द्र कहलाते हैं । इसे ही हम इस प्रकार कह सकते हैं कि वैमानिक देव दो प्रकार के हैं— कल्पोपपन्न और कल्पातीत ४ । जो कल्पों में रहते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं तथा जो कल्पों के ऊपर रहते हैं
१. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ३ सूत्र १०, ११ २०.
२. विष्णु पुराण २२७, २२-४, २४, ८८०. ३. मूलाचार १२/३३-३५.
४. तत्त्वार्थ सूत्र ४। १७.
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