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जैन सिद्धान्त : ४३९ (बस - जीवों के रहने का स्थान ) है । त्रसजीव इस त्रसनाली या त्रसनाड़ी के बाहर नहीं रहते ।
लोक के तीन भाग हैं - अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक । इन तीनों में अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत की आसन ( वेत्रासन ) के समान है, मध्यलोक का आकार झालर के समान तथा उर्ध्वलोक का आकार खड़े किए हुए मृदंग के सदृश है । लोक के मध्यम विस्तार का प्रमाण एक राजु है इसमें चौदह का गुणा करने से लोक का आयाम (ऊँचाई) चौदह राजु प्रमाण होता है । तीनों लोकों का वर्णन इस प्रकार है
अधोलोक - मूल से सात राजू की ऊँचाई तक अधोलोक है । इसमें क्रमश: उत्तरोत्तर नीचे-नीचे सात पृथ्वियाँ हैं— रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा (शर्करा - कंकड़), बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा (धूम-धुआँ), तमः प्रभा और महातमः प्रभा । २ इन पृथ्वियों में एक-दूसरे के बीच में असंख्य योजनों का अन्तर है । इन्हें सात नरक भूमियाँ (नरक) भी कहते हैं तथा इनमें रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं। इन पृथ्वियों के साथ जुड़ा हुआ प्रभा शब्द इनके नाम के अनुसार उसकी कांति और उस प्रकार के रंग को व्यक्त करता है। प्रथम रत्नप्रभा भूमि के तीन भाग या काण्ड हैं- खरभाग, पंकभाग और अप् (जल) - बहुल भाग ।
मध्यलोक - अधोलोक और उर्ध्वलोक के बीच में मध्यलोक है । इसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं । इसमें असंख्यात द्वीप और समुद्र परस्पर एक-दूसरे को घेरे हुए हैं । मध्यलोक के बीचोंबीच प्रथमद्वीप जम्बूद्वीप है । यह गोल है और इसका विस्तार एक लाख योजन है । प्रथम समुद्र लवण समुद्र है । सम्पूर्ण द्वीप समुद्रों के विस्तार आदि का प्रमाण जम्बूद्वीप के अधीन है, क्योंकि यह द्वीप असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीच नाभि के सदृश अवस्थित है । जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्षं, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष - ये सात क्षेत्र हैं । इन क्षेत्रों को पृथक् करनेवाले पूर्व-पश्चिम लम्बे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी- ये छह वर्षधर (पर्वत) । इन सात क्षेत्रों के ही मध्य में गंगा-सिन्धु, रोहित - रोहितास्या, हरित - हरि
१. हेट्ठा मज्झे उर्वार वेत्तासणझल्लरीमुदंगणिभो । मज्झिमवित्थारेण दु चोद्दसगुणमायदो लोओ ||
२. मूलाचार १२ ।९३. ३. मूलाचार वृत्ति १२/३२.
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- मूलाचार ८|२४, तिलोय पण्णत्ति १३७-८.
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