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________________ जैन सिद्धान्त : ४३७ . 4 अतः मूलाचार के परिपेक्ष्य में जैन-धर्म-दर्शन के प्रमुख जैन सिद्धान्तों का विवेचनात्मक परिचय यहाँ प्रस्तुत हैलोक स्वरूप विमर्श: लोक विषयक विभिन्न मान्यतायें धार्मिक क्षेत्रों में प्रचलित हैं। यह स्वाभाविक है कि जब से व्यक्ति जन्म लेता है और जैसे-जैसे वह बुद्धि से परिपक्व होता जाता है उसके मन में इहलोक और इस लोक से परे परलोक के विषय में जिज्ञासायें उत्पन्न होती है। जैन दृष्टि बहुत कुछ विज्ञान सम्मत समाधान इस विषय में प्रस्तुत करती है। जैनधर्म की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह लोकविषयक सृष्टि को ईश्वर की रचना नहीं मानता। मूलाचारकार के शब्दों में लोक अकृत्रिम, अनादिनिधन और स्वभाव-निष्पन्न है।' यह लोक घनोदधिवातवलय, धनवातवलय और तनुवातलय--इन तीन वायुओं से वेष्टित है । अर्थात् यह लोक तीन वातवलयों के आश्रय से स्थित है। इनमें लोक धनोदधि वातवलय के आश्रय से स्थित है । धनोदधि वातवलय घनवातलय के आश्रय से स्थित है। घनवातवलय तनुवातवलय के आश्रय से स्थित है । तनुवातवलय आकाश के आश्रय से स्थित है और आकाश स्वप्रतिष्ठ है, उसे अन्य किसी आश्रय की जरूरत नहीं है। सामान्यतः आकाश के जितने भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों का सद्भाव पाया जाता है उतना भाग लोक कहलाता है, शेष उसके चारों तरफ अनन्त 'अलोकाकाश' है। अलोकाकाश के बीचों-बीच लोकाकाश है । मूलाचारकार ने कहा है जिनेश्वरों द्वारा सम्पूर्ण द्रव्य, पर्यायों सहित जो देखा जाता है उस जगत् को 'लोक' कहते हैं । धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाश-प्रमाण है अतः धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य तथा जीव और पुद्गलों का जहाँ तक गमनागमन है उतना लोक है। इसके परे अनन्त आकाश है । वहाँ जीव, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गलों--इन पाँच द्रव्यों का अभाव है। ऐसे आकाश को अलोकाकाश कहते हैं । वह केवल ज्ञानगम्य है । इस प्रकार लोक के दो भेद किए जाते हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यों के कारण है । धर्म, अधर्म द्रव्यों का क्षेत्र आकाश का एक भाग है जिसे लोकाकाश कहते हैं। उसके बाहर इन द्रव्यों के अभाव से जीव, पुद्गल की गति स्थिति नहीं होती । इसलिए धर्म, अधर्म द्रव्यों की स्थिति का क्षेत्र उसके बाहर के क्षेत्र से अलग होने के कारण लोकअलोक में भेद हैं। १. मूलाचार ८।२२, २. वही ७।४३, ३. वही सवृत्ति ८।२३. २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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