________________
४३६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
अतः संयम का स्वरूप जानने के लिए जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक है। इसीलिए आचार-निरूपण के पश्चात् विशेष रूप से पर्याप्ति अधिकार में पूर्वोक्त बीस सूत्रपदों का प्रतिपादन पूर्ण सार्थक ही है। कहा भी है कि जब मनुष्य जीव और अजीव-इन दोनों को जान लेता है तब वह सब जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। इसके बाद वह पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। इनको जानने के बाद जो भी देवों और मनुष्यों के भोग है उनसे विरक्त हो जाता है। जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है तब वह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है और मुंड होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करके उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है एवं अबोधि-रूप पाप द्वारा सांचित कर्म-रज को प्रकम्पित करके सर्वत्र-गामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए पर्याप्ति आदि का प्रतिपादन यहाँ सार्थक हैं । जीब-अजीव आदि का ज्ञान प्रत्येक श्रमण को इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जिसको जीवों का ज्ञान नहीं होता, उसे उनके अस्तित्व में भी विश्वास (श्रद्धा) नहीं होता तब वह व्यक्ति जीवनव्यवहार में, उनके प्रति संयमी, अहिंसक अथवा चारित्रवान् कैसे हो सकता है ? भगवती आराधना में स्थितिकल्पों के प्रसंग में कहा है कि जीवों के भेद-प्रभेद के ज्ञाता व्यक्ति को ही नियम से व्रत देना चाहिए। . जिस तरह रोगी को औषधि देने के पूर्व उसे वमन-विरेचन कराने से औषधि लामू मालूम पड़ती है, उसी तरह जीवों के अस्तित्व में श्रद्धा रखते हुए जो व्रत ग्रहण करता है उसके महाव्रत स्थिर होते हैं। जैसे मलिन वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता और स्वच्छ वस्त्र पर सुन्दर रंग चढ़ता है, उसी तरह जिसे जीवों का ज्ञान नहीं होता, जिसे उनके अस्तित्व में शंका होती है वह अहिंसा आदि महाव्रतों के योग्य नहीं होता तथा जिसे जीवों का ज्ञान और उनमें श्रद्धा होती है वह उपस्थापन के योग्य होता है और उसी के व्रत सुन्दर और स्थिर होते हैं । श्रमणाचार के प्रसंग में इन सिद्धान्तों का विवेचन इसलिए भी आवश्यक है ताकि कुछ विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण हो सके, साथ ही श्रमण अपने चारित्रिक विकास की परख गुणस्थान, लेश्या आदि के आधार पर कर सके । क्योंकि सिद्धान्तों के कार्यान्वयन की प्रक्रिया का मुख्य आधार आचार ही है।
१. दशवकालिक ४।१४-२१. जैन विश्व भारती, लाडनू प्रकाशन ।। २. भ. आ० ४२१ पृष्ठ ३३०. ३. दशवै० : टिप्पण ४० पृष्ठ १३४. . .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org