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आर्यिकाओं की आचार पद्धति : ४३३ गणिनी (प्रधान) आर्यिका :
यद्यपि आर्यिकायें आचार्य के ने त्व में ही अपनी संयम-यात्रा सम्पन्न करती हैं किन्तु श्रमण संघ में जो स्थान आचार्य का होता है वही स्थान आयिका संघ में गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) का होता है । गच्छाचार पइन्ना के अनुसार शीलवती, सुकृत करने वाली, कुलीन और गम्भीर अन्तःकरण वाली गच्छ में मान्य आर्यिका महत्तरा पद को प्राप्त करती है।' . मूलाचारकार ने गणिनी आर्यिका के समाचार (आचार-विचार) आदि के विषय का स्वतंत्र उल्लेख नहीं किया । किन्तु आयिकाओं के समाचार वर्णन के प्रसंग में प्रमुख आर्यिका का गणिनी या महत्तरिका एवं स्थविरा का वृद्धा आयिका के रूप में उल्लेख हैं । प्राचीनकाल में आर्यिका संघ बड़ा ही सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित था। वृद्धा, तरुणी आदि सभी उम्र की आयिकायें परस्पर एक दूसरे के सहयोग की भावना के साथ अपने विशुद्ध आचार के पालन, तपश्चरण, शास्त्राध्ययन एवं मननचिन्तन में सदा लीन रहती थी। संघ या वसतिका से बाहर अकेले एवं बिना गणिनी की आज्ञा के जाना निषिद्ध था । श्रमणों से धार्मिक कार्य, जैसे दीक्षा, शंका-समाधान, वंदना आदि तक ही सीमित था। तात्त्विक या आचार सम्बन्धी शंका आदि होने पर प्रधान आयिका को आगे करके या उन्हीं के माध्यम से समाधान प्राप्त करने का विधान है। भिक्षा आदि के समय कम से कम तीन, पाँच अथवा सात आर्यिकायें एक साथ परस्पर रक्षण के भाव से निकलती है। इसी तरह वन्दना, प्रतिक्रमण. स्वाध्याय आदि के लिए आचार्य, उपाध्याय तथा श्रमणों के पास जाने या अन्यत्र विहार के समय तीन, पाँच या सात अथवा इससे भी अधिक आर्यिकायें एक साथ मिलकर ईर्यासमितिपूर्वक तथा प्रधान (वृद्धा) आयिका का अनुगमन करती हुई जाती हैं। इनकी वसतिका श्रमणों, असंयतजनों एवं दुष्ट तिर्यञ्चों आदि से दूर विशुद्ध संचार वाले स्थान में होने का विधान है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रायः सभी दिगम्बर परम्परा के आचार विषयक ग्रन्थों में आर्यिकाओं की सम्पूर्ण आचार पद्धति का स्वतन्त्र विवेचन नहीं मिलता । मूलाचारकार ने यत्र-तत्र प्रसंगवश ही इनके आचार का कुछ विशेष विवेचन किया है, अन्यथा शेष आचार श्रमणों के समान ही प्रतिपादित समझने को कहा है। यथा-पूर्व में जैसा आचार श्रमणों के विषय में कहा है वैसा ही सम्पूर्ण अहोरात्र सम्बन्धी समाचार (वृक्षमूलयोग आदि को छोड़कर) आर्यिकाओं
१. गच्छाचारपइन्ना, गाथा ९४ का विवेचन ।
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