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४३२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन जाने से संघ के साधु उनकी आज्ञा पालन नहीं करेंगे। इससे संघ का विनाश हो सकता है।' . आचार्य वट्टकेर ने थोड़ा ही कहकर विश्रान्ति लेते हुए कहा है कि ज्यादा कहने से क्या लाभ ? उपयुक्त गुणों से युक्त गणधर अपनी इच्छा की अनुकूलतावश आवश्यकतानुसार उपयुक्त व्यवहार सभी आर्यिकाओं और शेष स्वगणस्थ श्रमणों के प्रति कर सकता है । आयिका संघ :
जैन साहित्य के अन्तर्गत जब हम चौबीस तीर्थंकरों के चरित सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि प्रत्येक तीर्थंकर के शासन काल में चतुर्विध श्रमण संघ में आर्यिकाओं की काफी संख्या रही है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी इन दोनों पुत्रियों के दीक्षित होकर आर्यिका होने के उल्लेख मिलते हैं । आयिका संघ आचार्य के नेतृत्व में गणिनी (प्रधान) आर्यिका के संरक्षण में प्रवजित होता है । श्रमण के दस स्थितिकल्पों में ज्येष्ठ नामक स्थितिकल्प में बताया गया है कि यद्यपि आर्यिका श्रमण की अपेक्षा पद में लघु होती है और आचार्य (गणधर) द्वारा ही आर्यिकाओं को दीक्षा का विधान है किन्तु उनके गणधर अनेक गुणों से युक्त होते थे। और ऐसे ही गणधर आर्यिका संघ का पूरा ध्यान रखते थे। आर्यिका द्वारा किसी अन्य आर्यिका या मुनि आदि की दीक्षा का उल्लेख मेरी दृष्टि में नहीं आया। बौद्ध परम्परा में भिक्षुणीसंघ भिक्षु संघ के अधीन रहता था। भिक्षुणियों का दर्जा भिक्षुओं से लघु माना जाता था। इस विषय में बहुत से नियम-उपनियम बनाये गये थे जिससे कि भिक्षुणियों के संसर्ग से भिक्षुओं का संघ अपवित्र व दोषपूर्ण न हो जाय । मूलाचार की एक गाथा से सूचित होता है कि आर्यिका संघ में किसी प्रकार के उपयुक्त व्यवहार आदि विधान की आवश्यकता महसूस हो तो अनेक गुणसम्पन्न गणधर अनुकूलतावश और समय को देखते हुए वैसा कर. सकता है।
१. मूलाचार ४।१८५. २. वही ४।१८६. ३. मूलाचार ४।१८३-१८४, बृहत्कल्प भाष्य २०५०. ४. बुद्ध और बौद्ध धर्म,—(आचार्य चतुरसेन शास्त्री) पृ० ६५. ५. मूलाचार ४।१८६.
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