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आर्यिकाओं की आचार पद्धति : ४३१ हो आखिर वह है स्त्री । कामान्ध व्यक्ति को उनमें कोई भी अन्तर नजर नहीं आता । अतः स्त्री को प्रज्वलित अग्नि के सदृश तथा पुरुष को घी से भरे हुए घड़े के सदृश कहा है । इस अवस्था में जो भी पुरुष स्त्री के संसर्ग में आते हैं वे (घी की तरह) पिघलकर या जलकर नष्ट हो जाते हैं और जो इनसे बचकर चलते हैं वे कल्याण को प्राप्त करते हैं।' आयिकाओं के गणधर :
आर्यिकाओं की दीक्षा, शंका-समाधान, शास्त्राध्ययन आदि कार्यों के लिए श्रमणों के सम्पर्क में आना भी आवश्यक होता है। श्रमण संघ की इस व्यवस्था के अनुसार साधारण श्रमणों की अकेले आर्यिकाओं से बातचीत आदि का निषेध है । आर्यिकाओं को प्रतिक्रमणादि विधि सम्पन्न कराने के लिए गणधर मुनि की व्यवस्था का विधान है ।
आयिकाओं के गणधर को निम्नलिखित गुणों से सम्पन्न माना गया है । प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा , संविग्नी (धर्म और धर्मफल में अतिशय उत्साह वाला), अवद्य (पाप) भीरू, परिशुद्ध, (शुद्ध आचरण वाले), संग्रह (दीक्षा, उपदेश आदि द्वारा शिष्यों के ग्रहण-संग्रह) और अनुग्रह में कुशल, सतत् सारक्षण (पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्ति) से युक्त, गंभोर, दुर्घष (स्थिर वित्त एवं निर्भय अन्तःकरण युक्त), मितभाषी, अल्पकौतुकयुक्त, चिर प्रवजित और गृहीतार्थ (तत्त्वों के ज्ञाता) आदि गुणों से युक्त आयिकाओं के मर्यादा उपदेशक गणधर (आचार्य) होते हैं । इन गुणों से युक्त श्रमण तो अपने आप में पूर्णत्व को प्राप्त करने वाला होता हैं और यह तो श्रमणत्व की कसौटी भी है। ऐसे ही गणधर आयिकाओं को आदर्श रूप में प्रतिक्रमणादि विधि सम्पन्न करा सकते हैं। उपयुक्त गुणों से रहित श्रमण यदि गणधरत्व धारण करके आयिकाओं को प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्तादि देता है तब उसके गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ-इन चार कालों को विराधना होती है । अथवा छेद, मूल, परिहार और पारंचिक-ये चार प्रायश्चित्त लेने पड़ते हैं। साथ ही ऋषिकुल रूप गच्छ या संघ, कुल, श्रावक एवं मिथ्यादृष्टि आदि इन सबको विराधना हो जाती है । अर्थात् गुणशून्य आचार्य यदि आर्यिकाओं का पोषण करते हैं तो व्यवस्था बिगड़ .
१. धिदभरिदघडसरित्थो पुरिसो इत्थी बलंत अग्निसमा ।
तो महिलेयं ढुक्का णट्ठा परिसा सिवंगयाइयरे ॥ मूलाचार १०।१००. -२. मूलाचार ४६१८३, १८४, बृहत्कल्प भाष्य २०५०.
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