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४३० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
उपाश्रय में ठहरने वाला श्रमण लोकापवाद रूप व्यवहार-निन्दा तथा व्रतभंग रूप • परमार्थ-निन्दा इन-दोनों को प्राप्त होता है । इस प्रकार साधु को केवल आर्याजनों के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए किन्तु अन्य भी जो-जो वस्तु साधु को परतन्त्र करती है उस-उस वस्तु का त्याग करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। उसके त्याग से उसका संयम दृढ़ होगा। क्योंकि बाह्य वस्तु के निमित्त से होने वाला असंयम उस वस्तु के त्याग से ही सम्भव होता है।
वस्तुतः सदाचार रूप संसर्ग से विशुद्धता आती है अर्थात् बोधि बढ़ती है और कुत्सित आचरण एवं प्रतिकूल संसर्ग से वह नष्ट भी हो जाती है। जैसे संसर्ग विशेष से जल का घड़ा कमल की सुगन्ध से शीतल और सुगंधित हो जाता है तथा अग्नि आदि के संसर्ग से उष्ण एवं रसहीन हो जाता है। अतः श्रमण को अच्छे संसर्ग में रहना चाहिए । ___ कन्या, विधवा, अन्तःपुर में रहने वाली रानो, स्वेच्छाचारिणी, तथा सलिंगिणी तपस्विनी महिला (आर्यिका) अर्थात् समान लिंग-व्रतादि रूप धारण करने वाली स्त्रियों के भी साथ क्षणमात्र का संसर्ग (सम्पर्क) तथा बातचीत आदि क्रियाओं से श्रमण अपवाद (निन्दा) को प्राप्त होता है। गच्छाचारपइन्ना में कहा है सभी पदार्थों में ममता रहित साधु स्वाधीन होता है किन्तु यदि वह आर्यिका के पाश में बंधता है तथा उसी के कथन का अनुसरण करता है तो वह साधु परतंत्र सेवक के समान हो जाता है ।" मूलाचारकार ने कहा है : स्त्री रूपप्रत्यय के सद्भाव (विश्वास के कारणवश) से जीव के चित्त में विक्षोभ उत्पन्न हो जाता हैं । अतः माता, बहिन, पुत्री, वृद्धा तथा मूक, लूली, लंगड़ी, अंधी, कानी, बहरी आदि अंगभंगयुक्त कुरूप, काष्ठादि में चित्रित स्त्रियों तथा निर्वस्त्र सती भी हो तो उससे सदा दूर रहना और डरना चाहिए। क्योंकि स्त्री का रूप निरपेक्ष होता है अर्थात् माता, बहिन, लूली-लंगड़ी आदि किसी भी रूप में
१. मूलाचार १०१६२. २. भगवती आराधना गाथा ३३४, ३३८. ३. मूलाचार १०।६३. ४. कण्णं विधवं अन्तेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा ।
अचिरेणल्लियमाणो अववादं तत्य पप्पोदि । वही ४।१८२. ५. गच्छाचारपइन्ना ६८, ६. हवदि य चित्तक्खोमो पञ्चयभावेण जीवस्स । मूलाचार १०।९९. ७. वही १०।१९१, १०२, ९९ ८. .....''इत्थीरूपं णिरावेक्खं-वही १०।१०१,
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