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४२. : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
और मैल से युक्त जिनका गात्र रहता है, जो किसी भी प्रकार का शरीर-संस्कार नहीं करती-ऐसी ये आर्यिकायें क्षमा, मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं।'
सुत्तपाहुड तथा इसकी श्रुतसागरीय टीका में तीन प्रकार के वेष (लिंग) का कथन है-१. मुनि, २. ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक-ऐलक एवं क्षुल्लक तथा ३. आर्यिका । कहा है तोसरा लिंग (वेष) स्त्री (आर्यिका) का है । इसे धारण करने वाली स्त्री दिन में एक बार आहार ग्रहण करती है। वह आयिका भी हो तो एक ही वस्त्र धारण करे तथा वस्त्रावरण युक्त अवस्था में ही आहार ग्रहण करे । ___ वस्तुतः स्त्रियों में उत्कृष्ट वेष को धारण करने वाली आर्यिका और क्षुल्लिकाये दो होती हैं । दोनों ही दिन में एक बार आहार लेती हैं । आर्यिका मात्र एक वस्त्र तथा क्षुल्लिका एक साड़ी के सिवाय ओढ़ने के लिए एक चादर भी रखती हैं । भोजन करते समय एक सफेद साड़ी रखकर ही दोनों आहार करती हैं । अर्थात् आर्यिका के पास तो एक साड़ी है पर क्षुल्लिका एक साड़ी सहित किन्तु चादर रहित होकर आहार करती हैं। भगवती आराधना में भी क्षल्लिका का उल्लेख मिलता है ।
भगवती आराधना में सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागरूप औत्सर्गिक लिंग में चार बातें आवश्यक मानी गई हैं--अचेलता, केशलोच, शरीर-संस्कार-त्याग और प्रतिलेखन (पिच्छी)। किन्तु स्त्रियों के अचेलता (नग्नता) का विधान न होते हुए भी अर्थात् तपस्विनी स्त्रियाँ एक साड़ी मात्र परिग्रह रखते हए भी उनमें औत्सर्गिक लिंग माना गया है । अर्थात् उनमें भी ममत्व त्याग के कारण उपचार से निर्ग्रन्थता का व्यवहार होता है। परिग्रह अल्प कर देने से स्त्री के उत्सर्ग
१. मूलाचार वृत्ति ४।१९०. २. सुत्तपाहुड १०, २१, २२. ३. लिंग इत्थीणं हवदि भुंजइ पिडं सुएयकालम्मि ।
अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ ।। सुत्तपाहुड २२. ४. सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२. ५. खुड्डा य खुड्डियाओ''भ० आ० ३९६. ६. अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहर्ण।
एसो हु लिंगकप्पो चदुन्विहो होदि उस्सग्गे ॥ भ० आ० ७९.
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