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.४२० : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन - अतः निर्दोष होने पर भी उन्हें अपना शरीर सदा वस्त्रों से ढके रहना पड़ता है।' इसीलिए स्त्रियों को तद्भव मोक्षगामी होने का विधान नहीं है। आर्यिकाओं में उपचार से महाव्रत भी श्रमण संघ की व्यवस्था मात्र के लिए कहे गये हैं किन्तु उपचार में साक्षात् होने की सामर्थ्य नहीं होती। यदि स्त्री तद्भव से मोक्ष जाती होती तो सौ वर्ष की दीक्षिता-आर्यिका के द्वारा आज का नवदीक्षित मुनि भी वंदनीय' कैसे होता ? वह आर्यिका ही उस श्रमण द्वारा वंदनीय क्यों न होती ?
विरक्त स्त्रियों को भी वस्त्र धारण के विधान में उनकी शरीर-प्रवृत्ति ही मुख्य कारण है, क्योंकि प्रतिमास चित्तशुद्धिका विनाशक रक्त-स्रवण होता है, कांख, योनि और स्तन आदि अवयवों में कई तरह के सूक्ष्मजीव उत्पन्न होते रहने से उनसे पूर्ण संयम का पालन सम्भव नहीं हो सकता । इसीलिए इन्हीं सब कारणों के साथ हो' स्वभाव से पूर्ण निर्भयता एवं निर्मलता का अभाव, परिणामों में शिथिलता का सद्भाव तथा निःशंक रूप में एकाग्रचिन्ता निरोध रूप ध्यान का अभाव होने के कारण सूत्रपाहड में स्त्रियों की दीक्षा तक का निषेध किया है । इस प्रकार उत्तम संहनन के अभाव के कारण शुद्धोपयोग रूप परिणाम, तथा नग्न मुद्रा आदि आर्यिकाओं को सम्भव नहीं है। इस तरह वस्त्र त्याग की अशक्यता होने से तत्सम्बन्धी निराकुलता एवं चित्त की दृढ़ता उनमें नहीं हो सकती और न इन्हें सामायिकचारित्र की ही प्राप्ति हो सकती है, अतः इनमें उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं ।
श्वेताम्बर परम्परा के बृहत्कल्प में कहा है कि साध्वियाँ भिक्षु-प्रतिमायें धारण नहीं कर सकतीं। लकुटासन-उत्कटुकासन, वीरासन आदि आसन नहीं
१. ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि ।
ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासि च संवरणं ।। प्रवचनसार २२५।५. २. स्त्रीणामपि मुक्तिन भवति महाव्रताभावात्-मोक्खपाहुड टीका १२. ३. वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू ।
अभिगमण वंदण नमसणेण विणएण सो पुज्जो ॥ मोक्खपाहुड टीका १२।१. ४. लिंगम्हि य इत्थीणं थगंतरे णाहिकक्खपदेसेसु ।
भणिदो सुहुमुप्पादो तासिं कह संजमो होदि । प्रवचनसार २२५।७. ५. सुत्तपाहुड गाथा ७. ६. चित्तासोहि ण तेसि ढिल्लं भावं तहा सहावेण ।
विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाणं । सुत्तपाहुड २६.
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