________________
आर्यिकाओं की आचार पद्धति : ४१९
नहीं कर सकतीं तब मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकती है ? यदि स्त्रियाँ मुक्त होती तो उस पर्याय की मूर्तियों की पूजा क्यों नहीं की जाती ?'
इसीलिए दिगम्बर परम्परा ने स्त्रियों को तद्भव मोक्षगामी नहीं माना, क्योंकि मोक्ष के कारणभूत जो ज्ञानादि गुण हैं उनका प्रकर्ष स्त्रियों में नहीं होता। इसी तरह सप्तम पृथ्वी (नरक) में जाने के कारणभूत पाप का परम प्रकर्ष भी स्त्रियों में नहीं पाया जाता है । यद्यपि स्त्रियों में सामान्यतः संयम तो है किन्तु वह संयम मोक्ष का कारण नहीं है, जैसे तिर्यञ्च या गृहस्थ का संयम मोक्ष का कारण नहीं है । शास्त्रों में वस्त्र रहित संयम स्त्रियों को नहीं बतलाया है। श्वेताम्बर परम्परा में भी स्त्रियों को अचेलकत्व (वस्त्र रहित होने) का निषेध किया ही गया है । वस्त्र-ग्रहण में अनेक प्रकार से जीकों का घात होता है । वस्त्र ग्रहण से बाह्य परिग्रह तथा स्व-शरीर का अनुरागादि रूप आभ्यन्तर परिग्रह स्त्रियों के होता है।
प्रवचनसार की दो प्रक्षेपक गाथाओं में कहा है कि सम्यग्दर्शन की शुद्धि, -सूत्रों के अध्ययन से संयुक्त तथा घोर पक्षोपवास, मासोपवास आदि तपश्चरण रूप चारित्र-इन सबसे युक्त स्त्रियों के भी सभी कर्मों की निर्जरा नहीं होती। सुत्तपाहुड में यही कथन है किन्तु यहाँ ‘ण णिज्जरा' के स्थान पर 'ण पावया' शब्द है जिसका अर्थ पं० जयचन्द जी छावड़ा ने अपनी भाषा वचनिका टीका में किया है कि-स्त्रीनि विर्षे जो स्त्री सम्यक्त्व करि सहित होय और तपश्चरण करें तो पाप-राहत होय स्वर्ग कू प्राप्त होय तातै प्रशंसा योग्य है और स्त्री पर्याय तैं मोक्ष नाहीं । विरक्तावस्था में भी स्त्रियों को वस्त्र धारण का विधान है। १. मोक्खपाहुड गाथा १२ की श्रुतसागरीय टीका. २. मोक्षहेतुर्मानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति परमप्रकर्षत्वात् सप्तमपृथ्वीगमन
कारणापुण्यपरमप्रकर्षवत् । “संयममात्रं तु सदप्यासां न तद्धेतुः तिर्यग्गृहस्थादिसंयमवत् । 'न स्त्रीणां निर्वस्त्र : संयमो दृष्टः प्रवचनप्रतिपादितो वा ।
-प्रमेयकमलमार्तण्ड २।१२. ३. नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए-बृहत्कल्प सूत्र ५।१९. ४. गृहीतेऽपि वस्त्र जन्तूपघातस्तदवस्थः । वस्त्रगृहणादि बाह्यपरिग्रहोऽभ्य
न्तरं स्वशरीरानुरागादिपरिग्रहमनुमापयति-प्रमेयकमल मार्तण्ड २।१२. ५. जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता ।
घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ॥ प्रवचनसार २२५:८. ६. सुत्तपाहुड २५. .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org