________________
४१८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
अभ्रावकाशयोग (शीत ऋतु में खुले आकाश में ध्यान करना तथा दिन में सूर्य की ओर मुख करके खड्गासन मुद्रा में ध्यान करना) एवं अचेलकत्व (नग्नता) आदि कुछ ऐसे पक्ष हैं जो स्त्रियों की शरीर-प्रकृति के अनुकूल न होने के कारण उनका आचरण भी सम्भव नहीं है। इसीलिए आर्यिकायें उपचार से महाव्रतादि मूलगुणों की धारक मानी जाती हैं । उपचार से महावत होने के कारण तद्भव मोक्ष नहीं :
सिद्धान्तरूप में अनेक कारणों से आयिकाओं में उपचार से महाव्रत माने जाते हैं अतः उन्हें तदभव मोक्षगामी नहीं माना जाता।
मूलाचार के चतुर्थ 'समाचार अधिकार' के अन्त में एक अधिकार समाप्ति सूचक गाथा इस प्रकार है--
एवं विधाण चरियं चरंति जे साधवो य अज्जाओ।
ते गुणपुज्ज कित्ति सुहं च लळूण सिज्झन्ति ।।४।१९६. - इसका अर्थ है-इस समाचार अधिकार में जो विधानचर्या (समाचार) कही गई है उसका जो साधु-आर्यिकायें आचरण करते हैं, वे जगत् से पूजा को, यश को और सुख को प्राप्त करके सिद्ध गति को प्राप्त होते हैं। आचार्य वट्टकेर के इस सामान्य कथन के आधार पर कुछ विद्वानों ने दिगम्बर परम्परा में भी स्त्री मुक्ति को सिद्ध करने का प्रयास किया है। किन्तु ग्रन्थकार का हार्द न समझने के कारण ही ऐसे विशेष अर्थ निकाले जाते हैं। जबकि ग्रन्थकार का स्पष्ट कथन है कि जगत् में पूजा, यश और सुख प्राप्त करके सिद्ध होते हैं । इसमें यह कथन कहीं नहीं है कि इसो भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। वस्तुतः जगत्पूज्यता आदि विशेषताओं की प्राप्ति में ही जोव के कई (अनेक) भव व्यतीत हो जाते हैं । सिद्धान्त यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान पूर्वक स्वोचित मोक्षमार्ग का आर्यिकायें पालन करती है तब वर्तमान भव सहित कम से कम तीन भव धारण करके मनुष्य-भव पूर्वक नियम से मोक्ष जाती हैं । आर्यिकाओं को पंचम गुणस्थान होता हैं।'
मोक्षपाहुड टीका में कहा है कि सज्जातित्व बतलाने के लिए स्त्रियों में महाव्रतों का उपचार होता है, परमार्थ से उनके महाव्रत नहीं होते क्योंकि उनकी कांख में, स्तनों के बीच में, नाभि में और योनि में निरन्तर जीवों की उत्पत्ति और विनाश रूप हिंसा होती रहतो है और फिर स्त्रियाँ अहमिन्द्र पद भी प्राप्त
१. सुत्तपाहुड टीका २५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org