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आर्यिकाओं की आचार पद्धति चतुर्विध संघ में आर्यिकाओं का स्थान : __ मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध श्रमण संघ में 'आर्यिका' का दूसरा स्थान है । प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तथा इनको उत्तरवर्ती परम्परा में आयिका संघ की एक व्यवस्थित आचार पद्धति एवं उनका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है । श्रमण संस्कृति के उन्नयन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की सभी सराहना करते हैं। यद्यपि भगवान् महावीर के जीवन के आरम्भिक काल में स्त्रियों को समाज में पूर्ण सम्मान का दर्जा प्राप्त नहीं था किन्तु भगवान् महावीर ने स्त्रियों को समाज और साधता के क्षेत्र में सम्मानपूर्ण स्थान देने में पहल की। इन्होंने अपने संव में स्त्रियों को 'आर्यिका' (समणी या साध्वी) के रूप में दीक्षित करके इनके आत्म-सम्मान एवं कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। इसका सीधा प्रभाव तत्कालीन बौद्ध संघ पर भी पड़ा और महात्मा बुद्ध को भी अन्ततः अपने संव में स्त्रियों को भितणी के रूप में प्रवेश देना प्रारम्भ करना पड़ा। __ आचार विषयक दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी ग्रन्थों में जिस विस्तार के साथ मुनियों के आचार-विचार आदि का विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन मिलता है, आयिकाओं के आचार-विचार का उतना स्वतन्त्र विवेचन नहीं मिलता । साधना के क्षेत्र में मुनि और आर्यिका में किञ्चित् अन्तर स्पष्ट करके
आर्यिका के लिए मुनियों के समान ही आचार-विचार का प्रतिापादन इस साहित्य में मिलता है। मूलाचारकार एवं वृत्तिकार ने कहा है कि जैसा समाचार (सम्यक् आचार एवं व्यवहार आदि) श्रमणों के लिए कहा गया है उसमें वृक्षमूल, अभ्रावकाश एवं आतापन आदि योगों को छोड़कर अहोरात्र सम्बन्धी सम्पूर्ण समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य रूप में समझना चाहिए।' इसीलिए स्वतंत्र एवं विस्तृत रूप में आर्यिकाओं के आचारादि का प्रतिपादन आवश्यक नहीं समझा गया । . वस्तुतः वृक्षमूलयोग (वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना), आतापनयोग (प्रचण्ड धूप में भी पर्वत की चोटी पर खड़े होकर ध्यान करना),
१. एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहक्खिओ पुन्वं ।
सम्वह्मि अहोरत्तं विभासिदव्वो जधाजोग्गं । मूलाचार सवृत्ति ४।१८७. २७
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