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४१६ : मूलाचार का समोक्षात्मक अध्ययन
परवर्ती काल में दिगम्बर परम्परा के मूलसंघ में स्थान आदि के नाम पर विशेषकर कर्नाटक के स्थानों से स्थापित कई प्रकार के संघ, गण और गच्छ. आदि शाखाओं का उल्लेख मिलता है । जैसे
१. संघ-इसके अन्तर्गत नविलूरसंघ, मयूरसंघ, किचूरसंघ, कोशलनूरसंघ, गनेश्वरसंघ, गोडसंघ, श्रीसंघ, सिंघसंघ, परलूरसंघ आदि । - २. गण-बलात्कारगण (प्रारम्भिक नाम-बलिहारी या बलगार), सूरस्थगण, क्राणूर, कालोन, उदार, योगरिय, पुलागवृक्ष, मूलगण, पंकुर आदि ।
३. गच्छ-चित्रकूट, होत्तगे, तिगरिल, होगरि, पारिजात, मेषपाषाण, तित्रिणीक, सरस्वती, पुस्तक, वक्रगच्छ आदि ।
४. अन्वय-कोण्डकुन्दान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्तूरान्वय, चन्द्रकवाटान्वय, चित्रकूटान्वय आदि।'
मूलसंघ के इन भेद-प्रभेदों के बावजूद इसमें शुद्धाचारी और तपस्वी श्रमणों की कमी न थी और ऐसे हो श्रमणों ने शिथिलाचार को दूर करने और श्रमणसंघ की मूल परम्पराओं को सुदृढ़ करने में महान् योग दिया। __ इस प्रकार श्रमणसंघ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि यह विचारों में जितना मध्यमार्गी है, आचार में उतना ही सुदृढ़, मर्यादाबद्ध एवं अनुशासित है । भगवान् महावोर से लेकर अब तक इसका एक निश्चित विकास-क्रम स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार इसमें अनेक उतारचढ़ाव आते रहे तथा समय-समय पर अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में आगमानकल आचार-विचार और व्यवहार के पालन में कठिनाईयां उत्पन्न हुई किन्तु वसी स्थिति में भी मूल आचार-विचार के पथ से कभी विचलित नहीं हुए । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार आचार्यों ने मूल उद्देश्य को सुरक्षित रखते हुए किञ्चित् परिवर्तन को नयी व्यवस्थायें और नयी दिशायें भी प्रदान की ताकि जैनधर्म के माध्यम से आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता रहे । इस तरह भगवान् महावीर के निर्वाण के उपरान्त श्रमणसंघ प्रगति एवं विकास की ओर निरन्तर अग्रसर रहा और अपने मौलिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार एवं उनकी रक्षा विविध माध्यमों द्वारा देश-देशान्तर तक प्राचीनकाल से अब तक करता आ रहा है।
१. आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ : डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी का लेख 'दि० जैन संघ के :
अतीत की एक झांकी' से.
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