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श्रमण संघ : ४१३
वसुनन्दि ने प्रतिलेखन करने योग्य प्रसंगों में कमण्डलु के लिए 'कुण्डिका' शब्द का प्रयोग किया है और कहा है कि कुण्डिका ग्रहण करते समय पिच्छो से प्रतिलेखन अवश्य कर लेना चाहिए।'
वस्तुतः पिच्छी अप्रतिलेखन गुण से युक्त है किन्तु कमण्डलु में सम्मूछेन जीवों की उत्पत्ति होती रहती है अतः उनके निराकरणार्थ एक पक्ष में उसे बाहर-भीतर से प्रक्षालित करते रहना चाहिए। यदि एक पखवाड़े के पश्चात् भी कमण्डलु का सम्प्रोक्षण (शोधन) नहीं किया गया तो प्रतिक्रमण तथा उपवास करना होगा।
३. ज्ञानोपकरण:-श्रमणों के दैनिक जीवन में स्वाध्याय का विशिष्ट स्थान है । स्वाध्याय एक तप भी है तथा साधु के पांच आचारों में से ज्ञानाचार का अंग भी है । स्वाध्याय के चार काल हैं, जिनमें मुनि को सदा स्वाध्याय में निरत रहना चाहिए। विविध शास्त्रों का अध्ययन, मनन और चिन्तन उनके दैनिक जीवन का प्रमुख अंग है। इसके लिए विविध शास्त्रों, पुस्तकों की आवश्यकता होती है जिनके द्वारा अध्ययन-अध्यापन, ज्ञानवर्धन, लेखन तथा उसका प्रसार आदि कार्य करते रहते है। मूलाचार में पुस्तक (पुच्छय) आदि को ज्ञानोपकारक कहा है।
४. अन्य उपकरण-भूमि पर शयन करना श्रमणों का एक मूलगुण है । वे. प्रासुक भूमि-प्रदेश में अपने शरीर प्रमाण अल्प संस्तर पर प्रच्छन्न एवं एकान्त स्थान में धनुषाकार रूप में एक पार्श्व (करवट) से सोते हैं। इस दृष्टि से अन्य उपकरण से तात्पर्य 'अल्प संस्तर' है। वसुनन्दि के अनुसार जिसमें बहु-संयम का विघात न हो वह तृणमय, काष्ठमय एवं शिलामय भूमि प्रदेश अल्पसंस्तर है। ___ इस तरह श्रमणों को संयम, शुद्धि हेतु अत्यावश्यक एवं कम से कम उपकरणों के उपयोग का विधान है । वस्तुतः राग की मात्रा में जितनी कमी होती जाती है । उतनी हो मात्रा में वीतरागता को वृद्धि होती जाती है। अतः दिगम्बर परम्परा.. १. आदाने कुंडिकादि ग्रहणे-वही १०।२३, ४।१३८. २. शश्वद विशोषयेत् साधु पक्षे पक्षे कमण्डलुम् । . तदशोधयतो देयं सोपस्थानोपवासनम् ।।
-प्रायश्चित्त समुच्चय ८८ (पिच्छि कमण्डलु पृ० १०३). ३. ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्योपधिरुपकरणं ज्ञानोपधिर्ज्ञाननिमित्तं पुस्तकादि-मूलाचार--
वृत्ति १।१४. ४. पुच्छयं-पुस्तकं ज्ञानोपकारकम्-वही ४११३८, १४०. ५. फासुयभूमिपएसे अप्पसंथारिदम्हि पच्छण्णे ।
दंडंघणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एवपासेण ।। मूलाचार १।३२. ६. मूलाचारवृत्ति ११३२.
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