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________________ ४१२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन उसी की छाया वर्तमान मुनियों में आ जाती है। जो श्रमण पिच्छी नहीं रखते वह मूढ़चारित्र श्रमण है।' रोगादि होने पर श्रमण पिच्छी सहित अंजलिबद्ध होकर जुड़ी हुई अंजलि को वक्ष के मध्य में स्थित करके पर्यकासन, वीरासन अथवा सुखासन से बैठकर मन को एकाग्र कर स्वाध्याय तथा वन्दना कर सकता है। स्वस्थ-अवस्था में यदि श्रमण उसे मस्तक पर छायार्थ उत्तोलित करता है, अपने वक्षस्थल को आच्छादित करता है और मस्तक पर उससे आवरण बनाता है तो उसे प्रायश्चित्तकल्याणक देने का विधान है। रूग्णदशा में इन सबको दोष नहीं माना गया है । आचार्य की वन्दना के समय 'मैं वन्दना करता हूँ' ऐसा कहते हुए पश्वर्धशय्या से अवस्थित होकर मस्तक से पिच्छी को स्पर्श कराते हुए वन्दना करना चाहिए। जब आचार्य प्रतिवन्दन करें तब उन्हें सपिच्छाञ्जलि होना चाहिए।" तथा जब श्रमण को प्रायश्चित्त दिया जाता है तब उनको पिच्छो का लोमानभाग आगे रखना चाहिए । यह उसके प्रायश्चित्तीय होने का प्रतीक है । इस प्रकार संयमोपकरण में मयूरपिच्छिका का उपयोग प्राचीन काल से ही मुनि करते आ रहे हैं क्योंकि यह दया पालन का चिह्न है। सर्प, बिच्छू आदि जीव-जन्तु मयूर-पिच्छी के पास नहीं आ पाते । मयूर पंख मुक्ताफल, सीप आदि की तरह पवित्र माने जाते हैं अतः उनसे निर्मित पिच्छिका स्वभावतः पवित्र होती है । सकलकीर्ति के अनुसार प्रतिलेखन के लिए मयूरपिच्छि धारण श्रेष्ठता की बात है। तीर्थंकर परमदेव ने इसे सूक्ष्म जीवों को रक्षात्मक होने से दयोपकरण के रूप में योगियों के लिए प्रशंसनीय कहा हैं । २. शौचोपकरण (कमण्डलु)-प्रतिलेखन के लिए श्रमण अपने पास जहाँ 'पिच्छी अनिवार्य रूप में रखते हैं उसी तरह शुद्धि के लिए कमण्डलु भी आवश्यक होता है । पाणि-पाद-प्रक्षालन तथा मल-मूत्र त्याग के बाद शुद्धि के लिए कमण्डलु में प्रासुक जल रखते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने आदान-निक्षेपण समिति के प्रसंग में विशुद्धि के लिए शौचोपकरण के रूप में कमण्डलु का उल्लेख किया है। १. भद्रबाहु क्रियाकोश ७-९. २. चारित्रसार ४३. ३. प्रायश्चित्त समुच्चय ७५. ४. आचारसार ६१. ५. वही ६२. ६. पिच्छि कमण्डलु-पृष्ठ ९७. ७. मलाचार प्रदीप ९।३२. ८. शौचस्य पुरीषादिमलापहरणस्योपधिरुपकरणं शौचोपधिमूत्रपुरीषादि प्रशालन निमित्तं कुंडिकादिद्रव्यम्-मूलाचार वृत्ति १।१४. ९. पोथइकमंडलाइं गहण विसग्गेसु"नियमसार ५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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